दलित अत्याचार कोई नई समस्या नहीं। वर्ण व्यवस्था से उपजी यह विषमता ब्रिटिश काल से आज तक चली आ रही है। स्वतंत्र भारत में डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने संविधान के माध्यम से आरक्षण और सुरक्षा कानून दिए, जैसे एससी/एसटी एक्ट, लेकिन व्यावहारिक रूप से अत्याचार जारी रहे। NCRB के आंकड़ों के अनुसार, 2023 में दलितों पर 52,866 मामले दर्ज हुए, जिसमें हर 18 मिनट में एक अपराध होता है – 13 हत्याएं प्रति सप्ताह, 27 अत्याचार प्रति दिन।192667 यह आंकड़े बताते हैं कि समस्या सिस्टमिक है, न कि किसी एक सरकार की। लेकिन सवाल यह है कि राजनीतिक दल इस पर क्या कर रहे हैं?
कांग्रेस शासन- वादे और वास्तविकता का फासला
2004-2014 के बीच कांग्रेस-नीत UPA सरकार सत्ता में थी। इस दौरान दलितों पर अत्याचारों में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई। NCRB रिपोर्ट्स से पता चलता है कि 2013 में दलितों पर 39,408 मामले दर्ज हुए, जो 2004 के 26,127 से बढ़कर आए। हाथरस जैसी घटनाएं (2020 में, लेकिन पैटर्न पुराना) कांग्रेस काल में भी आम थीं, जैसे 2012 में हरियाणा में दलित बलात्कार मामले। राहुल गांधी ने खुद 2025 में स्वीकार किया कि 1990s में कांग्रेस ने दलितों और पिछड़ों के हितों की उपेक्षा की, जिससे उनका विश्वास खोया। उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी के समय दलितों का पूरा विश्वास था, लेकिन बाद में पार्टी ने “क्रांति” की जरूरत बताई। फिर भी, UPA ने एससी/एसटी एक्ट को मजबूत करने के प्रयास किए, लेकिन क्रियान्वयन कमजोर रहा। कांग्रेस अब “10 साल अन्याय काल” कहकर भाजपा पर आरोप लगाती है, लेकिन खुद के शासन में भी स्थिति “वही” थी – आर्थिक उदारीकरण ने दलितों की गरीबी बढ़ाई, और अत्याचारों पर राजनीतिक चुप्पी रही।
भाजपा शासन- वृद्धि और आरोपों का दौर
2014 से भाजपा की केंद्र सरकार है, और NCRB डेटा से दलित अत्याचारों में स्पष्ट वृद्धि दिखती है। 2014 में 40,401 मामले थे, जो 2023 में 52,866 हो गए – 31% की बढ़ोतरी।652238 भाजपा शासित राज्यों में यह सबसे ज्यादा: उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचारों में नंबर एक, मध्य प्रदेश में एसटी पर सर्वाधिक। गुजरात (2016 ऊना कांड), मध्य प्रदेश (2023 में मूत्रकांड) जैसे मामले भाजपा पर दाग लगाते हैं। सरकार ने एससी/एसटी एक्ट को 2018 में मजबूत किया, लेकिन मानवाधिकार संगठन जैसे HRW कहते हैं कि UAPA जैसे कानूनों से दलित कार्यकर्ताओं को दबाया जा रहा है। भाजपा का दावा है कि प्रमुख अपराधों में कमी आई, जैसे बलात्कार में 19% गिरावट (2023 में 29,670 मामले), लेकिन दलित-विशेष आंकड़े विपरीत हैं। विपक्षी नेता जैसे अखिलेश यादव कहते हैं कि भाजपा राज्यों में दलित महिलाओं पर अपराध सबसे ऊपर।
राजनीतिक खेल- विपक्ष बनाम सत्ता का चक्र
राहुल गांधी का पत्र इसी संदर्भ में आया – वे विपक्ष में हैं, तो सत्ता पर हमला कर रहे हैं। लेकिन क्या यह दिखावटी है? उनके पुराने पोस्ट से पता चलता है कि 2018 में भी उन्होंने भाजपा पर दलित हिंसा को बढ़ावा देने का आरोप लगाया था। कांग्रेस में वे दलित मुद्दों पर मुखर रहे, जैसे 2025 में पार्टी नेताओं से कहा कि दलित-ओबीसी मुद्दे उठाते रहें। लेकिन सत्ता में रहते हुए कांग्रेस की चुप्पी बताती है कि यह अक्सर विपक्षी रणनीति है। अगर भाजपा विपक्ष में होती, तो शायद वह भी यही करती – जैसे 2023 में कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए। दोनों दल दलित वोटबैंक के लिए “प्रेम” दिखाते हैं: भाजपा आंबेडकर को अपनाती है, कांग्रेस जाति जनगणना का वादा करती है। लेकिन नवउदारवादी नीतियां (1990s से) दलितों को आर्थिक रूप से कमजोर करती रहीं, और हिंसा बढ़ी। मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे नेता कहते हैं कि भाजपा में “मनुवाद” है, लेकिन कांग्रेस की आंतरिक जातिवाद भी जगजाहिर।
दिखावटी प्रेम क्यों? एक गहन नजरिया
यह “दिखावटी दलित प्रेम” इसलिए क्योंकि दोनों दलों की प्राथमिकता सत्ता है, न कि न्याय। दलित अत्याचार राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल होते हैं – चुनाव में वोट, संसद में हंगामा। वास्तविक समाधान जैसे शिक्षा, रोजगार, कानून क्रियान्वयन की कमी है। राहुल का पत्र भावुक है, लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में आती, तो क्या बदलाव आता? इतिहास कहता है, शायद नहीं। भाजपा भी “सबका साथ” कहती है, लेकिन आंकड़े झूठ नहीं बोलते। समस्या गहरी है: नवउदारवाद ने असमानता बढ़ाई, और ब्राह्मणवाद को राजनीतिक संरक्षण मिला। सच्चा प्रेम तब होगा जब दलितों को सत्ता में हिस्सेदारी मिले, न कि सिर्फ सहानुभूति।
परिवर्तन की जरूरत
दलित अत्याचार सदियों पुराने हैं, और दोनों सरकारों में जारी रहे। राहुल का पत्र विपक्षी दायित्व है, जो दिखावटी लगता है क्योंकि सत्ता में रहते हुए भी सुधार नहीं हुए। अगर भाजपा विपक्ष में होती, तो शायद यही करती। अंततः, समाधान राजनीतिक इच्छाशक्ति में है – जाति जनगणना, सख्त कानून, आर्थिक सशक्तिकरण। अन्यथा, यह चक्र चलता रहेगा, और दलित पीड़ा सिर्फ चुनावी मुद्दा बनेगी। समाज को जागना होगा, दलों से सवाल पूछना होगा – क्योंकि न्याय दिखावे से नहीं, कार्रवाई से आता है।
सदियों की पीड़ा- जाति पात एक सामाजिक कुरीति की जड़ बन चुकी है

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