- आचार्य प्रवर ने किया छह प्रकार के भावों को व्याख्यायित
08.11.2023, गुरुवार, घोड़बंदर रोड, मुंबई (महाराष्ट्र)। सद्भावना, नैतिकता एवं नशामुक्ति की प्रेरणा द्वारा जनकल्याण का महनीय कार्य करने वाले अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण जी चतुर्विध धर्मसंघ के साथ नंदनवन, मुंबई में चातुर्मास करा रहे है। चतुर्मास काल अब संपन्नता की ओर है। इस प्रवास में श्रद्धालु श्रावक-श्राविकाओं ने जहां ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना में अपने आपको नियोजित किया वहीं विभिन्न आयोजनों आदि से अपने ज्ञान को भी वृद्धिंगत किया।
मंगल प्रवचन में देशना देते हुए आचार्य श्री ने कहा – भगवती आगम में भगवान महावीर ने छह प्रकार के भाव बताए है। आत्मा का मूल स्वरूप है, भाव। कर्मों के उदय व विलय से होने वाला परिणाम है, भाव। पारिणामिक भाव तो चलता ही रहता है, पर आठों कर्मों के क्षय होने से व क्षायिक भावों के उजागर होने से जो आत्मा का स्वरूप बनता है वह होता सिद्धत्व का स्वरूप। यह आत्मा की चरम विकास की अवस्था है। क्षयोपशम व उपशम भाव इसका एक नमूना है। उपशम का अर्थ है, उपशांत होना। जो कि कुछ समय के लिए होता है, जैसे श्रावक की सामायिक। सामायिक काल में वह साधु की तरह बन जाता है। समानता के भी दो रूप होते है बाह्य समानता व भीतरी समानता।
गुरुदेव ने तत्त्व की व्याख्या करते हुए आगे बताया कि उपशम भाव में शांत और पुनः कषाय उदय होता है। औदयिक भाव भावों की विकृत अवस्था है। सान्निपातिक भाव – संयोग से होने वाला भाव होता है। और आत्मा का पूर्णतया व पूर्णतः शुद्ध स्वरूप है – क्षयिक भाव। जहाँ कर्मों का पूर्णतः विनाश हो जाता है व सिद्धत्व की प्राप्ति हो जाती है। हमें उसी दिशा में गतिमान होते रहना है। ऐसा कोई जीव नहीं होता जिसमें क्षायिक व क्षयोपशमिक भाव में से कोई एक भाव न हो। सिद्धों के पास क्षायिक व संसारी जीवों के पास क्षयोपशामिक भाव है। व्यक्ति साधना के द्वारा सिद्धत्व की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करे। कार्यक्रम में डॉ. पियूष सक्सेना (नेचुरोपैथ) ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।