- आचार्य तुलसी के 26वें महाप्रयाण दिवस पर युगप्रधान आचार्यश्री ने अर्पित की विनयांजलि
- पहाड़ी मार्ग पर लगभग 11 कि.मी. का महातपस्वी ने किया मंगल विहार
- आइलैंड क्लब रिसोर्ट पूज्यचरणों से बना पावन
- सान्ध्यकालीन विहार कर आचार्यश्री पहुंचे प्रतिभा विद्या मंदिर
06.06.2023, मंगलवार, हेडवडे, पालघर (महाराष्ट्र)। जन-जन को सन्मार्ग दिखाने के लिए और आधुनिकता के चकाचौंध से ओतप्रोत आर्थिक राजधानी मुम्बई को आध्यात्मिकता के आलोक से आलोकित करने को बृहत्तर मुम्बई क्षेत्र में गतिमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगलवार को प्रातः की मंगल बेला में पारगांव से मंगल प्रस्थान किया। विहार पथ पूरी तरह पहाड़ी मार्ग ही था। आरोह-अवरोह से युक्त यह मार्ग कहीं-कहीं उबड़-खाबड़ भी था, किन्तु प्राकृतिक सुषमा प्रकृतिप्रेमियों को अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। आज के विहार मार्ग में प्रायः वेतरना नदी भी शांतिदूत के चरणों की सहचर बनी हुई थी। विकट मार्ग से लगभग 11 किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना संग खाणिवडे में स्थित आइलैंड क्लब रिसोर्ट में पधारे। जहां उपस्थित लोगों ने आचार्यश्री का भावभीना अभिनंदन किया।
आषाढ कृष्णा तृतीया तेरापंथ धर्मसंघ के नवमाधिशास्ता परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी के महाप्रयाण दिवस के रूप में स्थापित है। इस अवसर पर मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने उपस्थित जनता को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आकाश में नक्षत्र और तारागण से युक्त चन्द्रमा जिस तरह आसमान में शोभित होता है, इसी प्रकार गणी भिक्षुओं के मध्य शोभित होता है। जैन शासन में आचार्य का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन धर्म में मुख्य दो आम्नाय दिगम्बर और श्वेताम्बर हैं। इन दोनों आम्नायों में अनेकानेक उपांग हैं। जैन शासन में मूर्तिपूजा में विश्वास करने वाली विचारधारा और अमूर्तिपूजक विचारधारा है। दोनों के अपने-अपने आधार हो सकते हैं। अनेक धार्मिक विचारधाराओं में मूर्तिपूजा होती है और अनेक में मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं किया जाता है।
जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के प्रथम आचार्यश्री भिक्षु हुए। वे अमूर्तिपूजक संप्रदाय से थे और उनके निमित्त से जो संप्रदाय बना, वह जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ है। इस तेरापंथ धर्मसंघ को स्थापित हुए लगभग 263 वर्ष हो गए। आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा तेरापंथ की स्थापना का दिन है। अब तक अतीत में दस आचार्य हो चुके हैं।
तेरापंथ धर्मसंघ की आचार्य परंपरा में नवमें आचार्य परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी हुए। वे 22 वर्ष की छोटी उम्र में ही वे धर्मसंघ के सरताज बन गए। पुण्यकर्मों का योग होता है तो ऐसे पद पर इस रूप में कोई व्यक्ति विराजमान हो जाता है। तेरापंथ धर्मसंघ को एक बाइस वर्ष का नवयुवक आचार्य मिला। धर्मसंघ में आचार्य का सर्वाधिक लम्बा आचार्यकाल रहा। प्रारम्भ काल में राजस्थान से बाहर नहीं निकले, किन्तु उसके बाद जो प्रलम्ब यात्राएं हुईं, उनमें जैन-जैनतर आम जनता ही नहीं, देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और अनेकानेक राजनेताओं से मिलना-जुलना भी हुआ। एक अलग ही व्यक्तित्व था। वे रात को भी लम्बे समय तक विराजमान रहते थे। उन्होंने धर्मसंघ की कितनी सेवा की। कितने-कितने साधु-साध्वियों को मात्र दीक्षित किया, शिक्षित किया और आगे बढ़ाया। उन्होंने राजस्थान से कोलकाता और फिर राजस्थान से दक्षिण भारत में भारत के अंतिम छोर कन्याकुमारी तक पधारे थे। वे कोलकाता, दक्षिण भारत में पधारने वाले तेरापंथ के प्रथम आचार्य थे। अनेक रूपों में उन्होंने धर्मसंघ की सेवा की। गंगाशहर में उनके जीवन की अंतिम रात बोथरा परिवार के निवास स्थान में हुआ।
आज के दिन ऐसे महान व्यक्तित्व का महाप्रयाण हो गया। तेरापंथ के आचार्य, सम्राट, गणाधिपति का महाप्रयाण हो गया। वे तेरापंथ धर्मसंघ के पहले आचार्य थे, जिन्होंने अपने जीवनकाल में ही आचार्य पद का त्याग कर दिया था। वे विलक्षण आचार्य थे, जिन्होंने पद का विसर्जन कर आचार्यश्री महाप्रज्ञजी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। आज के दिन उनका सश्रद्धा स्मरण करते हैं। उनके जीवन से प्रेरणा, पथदर्शन आदि अनेक रूपों में प्राप्त हो।
कार्यक्रम में साध्वीप्रमुखाजी ने भी आचार्यश्री तुलसी के प्रति अपनी विनयांजलि समर्पित की। मुनि अभिजीतकुमारजी ने संस्कृत भाषा में आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी। मुनि अनेकांतकुमारजी ने गीत का संगान किया।
सान्ध्यकालीन विहार के दौरान महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने लगभग पांच किलोमीटर का विहार कर खाणिवडे में स्थित प्रतिभा विद्या मंदिर में पधारे, जहां आचार्यश्री का रात्रिकालीन प्रवास हुआ।