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अष्टगणी सम्पदा से सुशोभित होते आचार्य : आचार्य श्री महाश्रमण

Last updated: September 26, 2018 5:25 pm
admin
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8 Min Read
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– दलित नेता तिरुमावलम ने आचार्य श्री के दर्शन पाया पाथेय
– साध्वी प्रमुखाश्री ने बताये शांत सहवास के सूत्र
चेन्नई। णमो अरिहंताणं – आचार्यों को मेरा नमस्कार। नमस्कार महामंत्र का यह तीसरा पद है। लेकिन वर्तमान में अरिह्न्तों व सिद्धों की साक्षात् उपस्थिति के अभाव में आचार्यों का सर्वोच्च स्थान हो जाता है। आज भाद्रव महीने का अंतिम दिन, भाद्रव शुक्ला पूर्णिमा व आचार्य श्री कालूगणी का पदाभिषेक दिवस। उन्होंने ३३ वर्ष की युवावस्था में इस तेरापंथ धर्मसंघ के संचालन का दायित्व संभाला। एक ऐसा धर्म संघ जिसमें सैंकड़ों साधु साध्वी व लाखों श्रावक श्राविकाओं के लिए एक ही आचार्य मान्य होता है, उस धर्मसंघ का आचार्य पद पर आरुढ़ होना अतिविशिष्ट बात होती हैं। सातवें आचार्य डालगणी द्वारा उनके आचार्य पद के लिखे हुए नियुक्ति पत्र के आधार पर कालूगणी आचार्य बने, उपरोक्त विचार माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में आचार्य श्री महाश्रमण ने श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कहे।
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि हर आचार्य के पास आठ सम्पदाएँ होनी चाहिए। पहली हैं आचार सम्पदा। निर्मल आचार, महाव्रतों तथा समिति गुप्ति की सम्यक् साधना, ये अच्छी कोटी की साधना होनी चाहिए, क्योंकि इसका प्रतिबिंब व प्रतिछाया पूरे धर्म संध पर पड़ता हैं, पड़ सकता हैं। आचार्य श्री ने तेरापंथ धर्मसंघ के आध्यप्रर्वतक आचार्य भिक्षु के समय की बात बताते हुए कहा कि संतों ने आचार्य भिक्षु से निवेदन किया कि आप खड़े-खड़े नहीं बैठे- बैठे प्रतिक्रमण करे, तब भिक्षु स्वामी ने कहा में खड़ा-खड़ा प्रतिक्रमण करूंगा तो आने वाले बैठे बैठे तो करेंगे और अगर मैं बैठा बैठा करूंगा तो हो सकता है आने वाले साधु सोते सोते प्रतिक्रमण करेंगे।
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि बड़े करते हैं, तो छोटो पर प्रभाव पड़ता है, यथा राजा तथा प्रजा। बड़े लोग जैसा करते हैं तो नाम में लोग उन्होंने के उदाहरण देते हैं कि उन्होंने ऐसा किया, उन्होंने ऐसा किया। तो आचार्य में आचार सम्पदा होनी चाहिए, उनका आचार समृद्ध होना चाहिए। चलने, बोलने का संयम, खाने-पिने का संयम होना चाहिए, इन्द्रियों की चंचलता का अभाव होना चाहिए। दूसरी श्रुत सम्पदा के बारे में जानकारी देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि आचार्य में शास्त्रों का ज्ञान, कुछ पढ़े लिखे, जानकार, अध्ययन किये हुए, अध्ययनशील व उत्तर देने की क्षमता होनी चाहिए।
आचार्य श्री ने तीसरी शरीर सम्पदा की विवेचना करते हुए कहा कि आचार्य का शरीर मोटा मोटी ठीक होना चाहिए। शरीर सुंदर, स्वस्थ, सक्रिय तथा सक्षम होना चाहिए। अवस्था आने के बाद तो ठीक है, लेकिन जब आचार्य पद पर पदासीन होते हैं, उस समय शरीर समक्ष होना चाहिए, कुछ काम कर सके, ऐसा होना चाहिए। यानि आचार्य के शरीर की सुन्दरता, शरीर की सक्षमता, इन्द्रियों की स्वस्थता होनी चाहिए।
चौथी वचन सम्पदा के बारे में बताते हुए आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि आचार्य का प्रवचन भी होना चाहिए और आदेयवचनता, आचार्य जो कह दे समान्यतया लोग मान ले, सम्मान के साथ उनकी बात को स्वीकार कर ले, जो आदेश दे दिया संघ के सदस्य उनका सम्मान करे। आचार्य के वचन में मधुरता, शिष्टता, विशिष्ठता होनी चाहिए।
आचार्य श्री ने पांचवीं वाचना सम्पदा के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि आचार्य में ज्ञान के साथ अध्यापन कौशल भी हो। अपने शिष्यों आदि को पढा़ना, कोई ग्रन्थ पढ़ा सके, वाचना दे सके, अर्थ बता सके, उच्चारण करा सके। पढ़ाने का नेपुण्य, पढ़ाने की क्षमता यह भी आचार्य में होनी चाहिए।, क्योंकि आचार्य की बात शिष्यों में प्रामाणिकता के रूप में स्वीकार्य होती हैं, अत: उन्हों में सूत्रों को, आगमों को, ग्रन्थों को अच्छे से पढ़ाने की क्षमता होनी चाहिए।
छट्टी मति संपदा के बारे में बताते हुए फरमाया कि आचार्य में बुद्धिमता, बुद्धि कौशल होना चाहिए। किस समय क्या करना, यह चिन्तनशीलता होनी चाहिए। स्वयं अपनी बुद्धि से निर्णय लेनी की क्षमता होनी चाहिए, न की दूसरों के कहे कहे चले।
आचार्य श्री ने सातवीं प्रयोग सम्पदा के बारे में बताते हुए फरमाया कि आचार्य में पाद कौशल यानि कभी शास्त्राात करना पड़े तो भी कर सके, चर्चा भी कर सके। सही बात है तो अपने तर्कों से समझा सके और गलत बात है, तो सामने वाले को अपने तर्कों से बता सके, निरूत्तर भी कर सके, ऐसा वाक् कौशल, तार्किक क्षमता होनी चाहिए।
आचार्य श्री ने अन्तिम आठवीं संग्रह परिज्ञा सम्पदा के बारे में बताते हुए फरमाया कि आचार्य में संघ व्यवस्था का कौशल होना चाहिए। जब आचार्य पर जिम्मा है संघ की व्यवस्था का तो साधु, साध्वीयों की कैसे व्यवस्था करना, श्रावक श्राविकाओं को क्या बताना, उनको और आगे कैसे बढ़ाना, उनका कैसे विकास हो सके, उनकी श्रद्धा कैसे ठीक रह सके, इस प्रकार की व्यवस्था का प्रयास करना चाहिए। *ज्ञान थोड़ा कम है तो चलेगा, लेकिन संघ की व्यवस्था तो करनी पड़ेगी, उसके बिना आगे काम कैसे चलेगा?* तो यह संघ व्यवस्था में निपुणता, संघ संचालन की क्षमता आचार्य में होनी चाहिए।
आचार्य श्री ने अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी के बारे में बताते हुए फरमाया कि वे इन सभी संपदाओं से परिपूर्ण थे व अस्वस्थता की स्थिति में भी दोष परिहार के प्रति जागरूक रहे। वे साधना सम्पन्न थे, आचार्य बनने के बाद भी वे सिखणा,अध्ययन करते थे। कालूगणी के शासन में धर्मसंघ में संस्कृत भाषा का विकास हुआ। आज उनके इस पट्टोत्सव के दिवस पर सादर स्मरण के साथ वंदन करता हूँ कि हमारे तेरापंथ धर्मसंघ रूपी महाग्रन्थ का आठवाँ अध्याय कालूगणी के नाम हो गया।

आहार, कार्य विभाजन, भार बोझ में समानता से होता शांत सहवास : साध्वी प्रमुखाश्री
साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा शांत सहवास के साधक बाधक सूत्रों के बारे में बताते हुए कहा कि साधु समुदाय में आहार, कार्य विभाजन, भार बोझ में विषमता नहीं रहनी चाहिए। अस्वस्थता के समय सेवा में सन्तुलन होना चाहिए, प्रमाद से गलती होने पर समान रूप से प्रायश्चित देना चाहिए।
कर्मणा तेरापंथी बने श्री डॉ प्रवीण भण्डारी ने अपने श्रद्धाशीत सुमन अर्पित किये। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार ने किया।

दलित नेता तिरुमावलम ने आचार्य श्री के दर्शन पाया पाथेय
दलित नेता श्री तरिरुमावलम अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्य श्री महाश्रमणजी के दर्शन सेवा की। आचार्य प्रवर ने जीवन में आध्यात्मिक का विकास के लिए नैतिकता, ईमानदारी अपनाने की, स्वयं नशामुक्त रहकर समाज को भी नशामुक्त बनाने की प्रेरणा दी। अहिंसा यात्रा प्रवक्ता मुनि श्री कुमारश्रमण ने अंग्रेजी में अनुवाद करके अहिंसा यात्रा की अवगति दी। श्री तिरुमावलम ने अहिंसा यात्रा के त्रिसूत्रीय आयामों की सराहना करते हुए इसमें अपनी सहभागीता निभाने का आश्वासन दिया। आचार्य महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति चेन्नई के अध्यक्ष श्री धरमचंदजी लुंकड़ ने व्यवस्था समिति की ओर से सम्मान करते हुए जैन तेरापंथ नगर की व्यवस्थाओं की जानकारी देने पर श्री तिरुमावलम व्यवस्थाओं की सराहना की। यह जानकारी आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति प्रचार – प्रसार विभाग प्रमुख स्वरूप चन्द दाँती ने दी।

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