- मोहनीय कर्म और गुणस्थानों का आचार्यश्री ने किया विश्लेषण
18 अगस्त 2021, बुधवार, आदित्य विहार, तेरापंथ नगर, भीलवाड़ा, राजस्थान। आदित्य विहार तेरापंथ नगर में विराजित शांतिदूत आचार्य श्री महाश्रमण जी का पावन प्रेरणा पाथेय जन-जन के अध्यात्म पथ का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। तात्विक ज्ञान को पुष्ट करती एवं नव दिशा की ओर गतिशीलता प्रदान करती आगम आधारित ये धर्म देशना सबके लिए कल्याणकारी बन रही है।
अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्य श्री महाश्रमण ने महाश्रमण सभागार से वर्चुअल अमृत देशना में कहा कि जैन दर्शन में कर्मवाद का सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण है। आठ कर्मों में मुख्यतया मोहनीय कर्म सब कर्मों का राजा होता है।मोह अर्थात राग की भावना जहां होती है वहा आत्मगुणों के प्रकट होने में बाधकता आती है। अध्यात्म की साधना मोहनीय कर्म के विलय की साधना है। व्यक्ति के पाप बंध का कारण मोह ही है। अध्यात्म की साधना से ही मोह कर्म पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
आचार्यवर ने आगे फरमाया कषाय मुख्य चार है- क्रोध, मान, माया, लोभ। अगर ये न हो तो दूसरे कषाय क्षीण हो जाते है। कषाय हमारी साधना में बाधक बनते है। साधना में रत व्यक्ति इन कषायों से विरक्त रहते हुए आत्म विकास कर सकता है। तराजू का उदाहरण देते हुए पूज्य प्रवर ने मोहनीय कर्म और गुणस्थानों की अवस्था समझाई जैसे-जैसे मोह हल्का होगा वैसे वैसे व्यक्ति आध्यात्मिक आरोहण की दिशा में आगे बढ़ेगा। मोह कर्म के सम्पूर्ण क्षय से आत्म स्वरूप का पूर्ण विकास होता है।
साध्वीवर्या संबुद्ध यशा ने उद्बोधन में बताया कि लोभ सारे गुणों का विनाशक है। मन पर नियंत्रण, इच्छा का सीमाकरण और संयम की चेतना से व्यक्ति लोभ की चेतना को नष्ट करते हुए सात्विक जीवन जी सकता है। कार्यक्रम में जेठमल चौधरी, श्री संपत बोथरा, श्रीमती नीलम कोठारी, सुश्री श्रेया, श्रुति रांका ने भी भावाभिव्यक्ति दी।