- डॉ. सोहनलाल गांधी (जयपुर)
- संकलन रमेश सोनी (थाना)
अणुव्रत आंदोलन गत सात दशकों में विश्व में निरंतर ह्रासोन्मुख नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को समाज में पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। एक ठोस आंदोलन और सामान्य व्यवहारिक दर्शन के रूप में अणुव्रत अभियान ने विश्व पर एक गहन एवं अमिट प्रभाव डाला है। इसका घोष है- संयम:खलु जीवनम् – संयम ही जीवन है । सरल भाषा में अणुव्रत को परिभाषित करते हुए अणुव्रत आन्दोलन के सूत्रधार अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य तुलसी ने एक स्थान पर लिखा –
अणुव्रत आन्दोलन जीवन के नैतिक एंव आध्यात्मिक कायाकल्प की परियोजना है । इसका उद्देश्य मनुष्य के सामाजिक एवं राजनैतिक हित से ही कही अधिक उत्कृष्ट है । यह उसके आध्यात्मिक एवं नैतिक हित को अभिलक्षित करता है। आध्यात्मिक हित न केवल सर्वोच्च हित है । अपितु सम्पूर्ण हित है। इसमे स्वंय का एवं दूसरों का हित सम्मिलित है।
आचार्य तुलसी को मान्यता थी कि भौतिक विकास पर अध्यात्म का अंकुश जरुरी है। भौतिक विकास के साथ-साथ अध्यात्म का भी व्यक्ति की जीवनशैली का हिस्सा हुए बिना सामाजिक सौष्ठव असंभव है । व्यक्ति समाज की छोटी इकाई है। अगर वह सुधरता है तो समाज स्वयं सुधर जाएगा ।
- सिंहावलोकन
आज की ज्वलंत पर्यावरणीय, परिस्थितिकीय एवं वहनीय (सस्टेबल) विकास की समस्याओं के समाधान में अणुव्रत आंदोलन की भूमिका पर प्रकाश डालने के पूर्व अणुव्रत आंदोलन के आविर्भाव की पृष्ठभूमि एवं तत्कालीन परिस्थितियों का सिंहावलोकन करना जरूरी है।
सन 1947 में भारत आजाद हुआ लेकिन धर्म के आधार पर धर्म का विभाजन के कारण उसे भायवह त्रासदी से गुजरना पड़ा। हिन्दू एवं मुस्लिम एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। सांप्रदायिकता की धधकती आद में लाखों लोगों को धकेल दिया गया। हजारों निर्दोष लोगों का कत्लेआम हुआ। अपने ही देश में करोड़ों लोग शरणार्थी हो गए। साथ ही भ्रष्टाचार ने महामारी का रूप ले लिया और नैतिक पतन की पराकाष्ठा पर पहुंच गया। इन विकट परिस्थितियों से आजादी का जश्न फीका हो गया।
देश के नेता, चिंतनशील व्यक्ति एवं धर्माचाराय इस अभूतपूर्व नैतिक संकट से हतप्रभ थे। आजादी के दो वर्ष पूर्व ही द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ लेकिन हिरोशिमा-नानासाकी आणविक त्रासदी ने संपूर्ण मानव जाति को झकझोर दिया। जर्मनी की पराजय के साथ ही यूरोप में युद्ध समाप्त हो गया था लेकिन जापान ने युद्ध जारी रखा और पर्व हार्बर की घटना ने अमेरिका को और अधिक आक्रामक बना दिया। जापानी सेना की महत्वाकांक्षा एवं अहंकार ही आणविक त्रासदी के कारण बने। इन घटनाओं का भारत के एक युवा जैनाचार्य के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनका नाम था आचार्य तुलसी।
द्वितीय युद्ध की समाप्ति के कुछ महीनों पूर्व ही उन्होंने अशांत विश्व के नाम एक शांति का संदेश जारी किया था जो आज भी हिंसा एवं घृणा की संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक एवं अमूल्य दस्तावेज है।
आजादी के बाद सांप्रदायिक उन्माद एवं नैतिकता शून्य लोक जीवन ने उन्हें व्यथित कर दिया। उनका मत था कि नैतिकता ही धर्म का आधार है और असंयम एवं अनैतिकता ही न केवल अशांति के मूल कारण है, अपितु धार्मिक उन्माम, शोषण, दलित उत्पीड़न एवं आर्थिक असमानता उसके उपोत्पाद हैं।
भारत आध्यात्म प्रधान देश है। हमारे जीवन में व्रत का बहुत महत्व है। यहां के लोग कानून तोड़ सकते हैं लेकिन स्वेच्छा से स्वीकार किए गए व्रत भंग करने का सोच भी नहीं सकते। सामाजिक रूपांतरण के लिए व्रत से बेहतर और कोई तरीके नहीं हो सकता। उनके सामने भगवान महावीर द्वारा अपने श्रावकों के लिए निर्धारित 12 अणुव्रतों पर आधारित आचार संहिता भी थी। उन्होंने वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में नई अणुव्रत आचार संहिता का निर्माण किया जिसमें 11 अणुव्रतों का चयन किया गया। ये अणुव्रत सब धर्मों के सिद्धांतों का नवनीत था तथा तत्कालीन समस्याओं का समाधान भी। आचार्य तुलसी द्वारा सृजित नई अणुव्रत आचार संहिता वस्तुतः संपूर्ण समाज के लिए थी। हर संप्रदाय एवं धर्म का अनुयायी अणुव्रती बन सकता था। हर व्यक्ति अपने धर्म का पालन करते हुए अणुव्रत अभियान का सक्रिय सदस्य बन सकता था।
आचार्य तुलसी कहा करते थे कि अणुव्रत का उद्देश्य एक हिन्दू को अच्छा, ईसाई को अच्छा ईसाई और मुस्लिम को अच्छा मुस्लिम बनाना है। इस तरह अणुव्रत सब धर्मों का सामूहिक प्लेटफार्म बन गया है। वह हिंसामुक्त वैश्विक, सामाजि, राजनैतिक व्यवस्था की रूपरेखा था और आचार्य तुलसी का अणुव्रत अभियान समाज में नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठित करने का सर्व स्वीकार्य राष्ट्रीय आंदोलन बन गया।
- अणुव्रत द्वारा तत्कालीन समस्याओं का समाधान
देश आजाद तो हुआ लेकिन हिन्दू-मुस्लिम तनाव, रिश्वतखोरी, भ्रष्ट्राचार, हिंसा, घृणा, अशिक्षा आदि समस्याओं के कारण सामान्य नागरिक ठगा सा महसूस कर रहा था। 11 व्रतीय आचार संहिता छोटे-छोटे संकल्पों पर आधारित है। 11 अणुव्रतधारी व्यक्ति यह संकल्प करता था कि
वह किसी निर्दोष प्राणी की हत्या नहीं करेगा, किसी पर आक्रमण नहीं करेगा और न युद्ध का समर्थन करेगा, वह विश्व शांति एवं निःशस्त्रीकरण के लिए सदैव प्रयत्नशील रहेगा। वह किसी हिंसक आंदोलन में भाग नहीं लेगा तथा मानवीय एकता में विश्वास करेगा। वह धार्मिक सहिष्णुता का अभ्यास करेगा तथा जीवन व्यवहार में प्रामाणिकता एवं ईमानदारी का निर्वाह करेगा। वह किसी को धोखा नहीं देगा। वह परिग्रह की सीमा निर्धारित करेगा। आवश्यकता से अधिक धन संग्रह नहीं करेगा। चुनाव में अनैतिक साधनों का प्रयोग नहीं करेगा, सामाजिक कुरीतियों का समर्थन नहीं करेगा। वह व्यसन मुक्त जीवन जीएगा तथा वह कोई ऐसा काम नहीं करेगा, जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचे। वह हरे पेड़ नहीं काटेगा, पानी बरबाद नहीं करेगा।
यदि हर व्यक्ति इन ग्यारह व्रतों के प्रति वचनबद्ध होकर जीवनजाता है तो समाज में सुख एवं समृद्धि स्वतः ही विकसित होगी। अहिंसक समाज का स्वजन साकार होगा। 72 वर्ष पूर्व तत्कालीन समस्याओं को ध्यान में रखकर बनाए गए आधुनिक अणुव्रत आज ज्यादा प्रासंगकि हैं। इनमें शाश्वतता के दर्शन होते हैं।
- अणुव्रत एवं वैश्विक समस्याए
पर्यावरण एवं परिस्थितिकी असंतुलन आज की ज्वलंत समस्या है, जिसके कारण मानव जीवन का अस्तित्व ही खतरे में है। इस असंतुलन के कारण ही आज विश्व वैश्विक उष्णता (ग्लोबल वार्मिंग), जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) एवं वहनीयता (सस्टेनिबिलिटी) के गंभीर संकट से गुजर रहा है। प्रकृति के अत्यधिक दोहन से हिमखंड (ग्लेशियर) पिघल रहे हैं। नदियां सूख रही हैं। पहाड़ों की हरियाली समाप्त हो रही है, सूखा बाढ़ एवं पीने योग्य पानी के संकट के कारण संपूर्ण विश्व त्रस्त है। गांधीजी के अनुसार प्रकृति ने हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सब कुछ दिया है लेकिन हमारे लालच के कारण सब अपर्याप्त है।
गाया – दी अर्थ की आवश्यकता के जनक प्रसिद्ध वैज्ञानिक जेम्स लवलोक के अनुसार पृथ्वी असाध्य रोग से ग्रस्त है। यदि समाज में भोगवादी संस्कृति, स्वच्छंदवादिता, धनलोलुपता, स्वार्थ, असहिष्णुता, जातीय एवं नस्लीय विद्वेष एवं एवं शत्रुता की मनोवृत्ति का प्राबल्य बना रहता है तो प्रलय जैसी स्थिति दूर नहीं है। न राष्ट्रीय सरकारें और न ही संयुक्त राष्ट्र हमें इस त्रासदी से बचा सकते हैं। अणुव्रत आचार संहिता के प्रति वैयक्तिक प्रतिबद्धता ही एकमात्र बचाव का उपाय है। यह भी सही है कि आचार्य तुलसी ने अणुव्रत अभियान केवल वैश्विक परिस्थितिकीय दुर्दशा को ध्यान में रखते हुए नहीं किया अपितु उनके 11 नये अणुव्रत सभी भूमण्डलीय एवं सामाजिक चिंताओं को दूर करने में सक्षम हैं। इस दृष्टि से अणुव्रत और इसकी दार्शनिक दृष्टि में अपार संभावनाएं हैं। इस द्वारा निर्धारित व्यावहारिक उपाय अप्रतिरोध्य एवं व्यवहार्य है। निश्चित रूप से इस ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए।
- परिस्थितिकीय समस्याः
पर्यावरण संकट एवं परिस्थितिकीय ह्रास हमारी भोगवादी प्रवृत्ति के कारण पैदा हुए हैं। इस ब्रह्मांड में विद्यमान सभी प्राणी एक अदृश्य सूत्र में बंधे हुए हैं, सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं और परस्पर सहयोग करते हैं। 2600 वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने एक सूत्र दिया – परस्परो ग्रहो जीवानाम। महावीर ने कहा – कोई जीव वध्य नहीं है, सभी जीना चाहते हैं, अतः जीव हिंसा पाप है। लेकिन संसार बिना हिंसा के चल नहीं सकता। अतः मनुष्यों को अनावश्यक हिंसा से बचना चाहिए।
इस संदर्भ में आधुनिक परिस्थितिकीय विज्ञानी प्रो. आर्ने नेस के विचार महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने कहा – परिस्थितिकीय संतुलन के जरूरी है मानव एवं गैर मानव (ह्यूमन एवं नॉन ह्यूमन) साथ-साथ फले फूले। महावीर ने भी यही कहा है। अणुव्रत आचार संहिता का पहला व्रत अनावश्यक हिंसा का निषेध करता है। इसके प्रति प्रतिबद्धता से मानव एवं अन्य जीवो के बीच खाई पट सकती है। हमारी पृथ्वी का संवहन क्षमता 10 प्रतिशत ही है। मनुष्य द्वारा बनाए गए कृत्रृम गड्ढे हमेशा बने रहेंगे। अणुव्रत आचार संहिता का सातवां अणुव्रत व्यक्ति को धन संचय (परिग्रह) की सीमा निर्धारण का संदेश देता है। परिग्रह हिंसा का मुख्य कारण है। प्रकृति में विद्यमान संसाधनों की लूट मची रहती है। लालच में मनुष्य जघन्य अपराध कर बैठता है। सरकारें एवं उद्योग विकास के लिए लोगों को अधिक से अधिक उपभोग के लिए प्रोत्साहित करते हैं। अंधाधुंध विकास ने दो सौ वर्षों में विज्ञान एवं तकनीकी की मदद से पृथ्वी के 80 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधन समाप्त कर दिए हैं। आने वाली पीढ़ी के लिए बहुत कम बचा है।
सामान्य परिस्थितिकीय संदेश है – सादगी से जीवन व्यतीत करो ताकि दूसरे भी जीवित रह सकें। अणुव्रत आचार संहिता का 11वां व्रत पर्यावरण एवं परिस्थितिकीय आचार संहिता है। व्यक्ति प्रतिज्ञा करता है कि वह हरे पेड़ नहीं कटेगा तथा पानी बरबाद नहीं करेगा। जहां एक ओर गरीब लोगों के शौचालयों के लिए उपलब्ध नहीं है और पीने का पानी दुर्लभ है, वहीं होटलों, तरण तारणों में लाखों टन पानी नष्ट हो जाता है। अणुव्रत का ग्यारहवां व्रत इस संकट को कम कर सकता है।
- वहनीय विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट):
अब प्रश्न उठता है कि क्या भौतिक विकास समावेशी है? क्या पृथ्वी पर विद्यमान सभी मनुष्यों को विकास का लाभ मिला है? उत्तर होगा – नहीं। आज भी दो अरब से ज्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रहे हैं। एक अरब से ज्यादा लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलता है। फिर किसकी विकास? स्वतत्र अर्थव्यवस्था में मुट्ठीभर लोग सभी संसाधनों पर कब्जा कर लेते हैं। खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है। गरीब-अमीर के बीच खाई कई गुनी गहरी हो गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ गत कई वर्षों से पर्यावरणीय एवं वहनीयता के संकट से जूझ रहे हैं। उसने वहनीय विकास के लिए 17 सूत्र निर्धारित किए हैं। उनके क्रियान्वयन के लिए वह सरकारों पर निर्भर है लेकिन लोगों की चेतना को जागृत किए बिना वहनीय विकास संभव नहीं है। अणुव्रत आचार संहिता का छठा, सातवां, नौवां एवं दसवां व्रत वहनीय विकास का संदेश देता है। अप्रमाणिकता, अनियंत्रित परिग्रह, व्यसन अवहनीय विकास के लिए उत्तरदायी है।
- अणुव्रत के सभी व्रतों में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष परिस्थितिकीय एवं वहनीय विकास की संभावनाएं
आचार्य तुलसी युगदृष्टा थे। भगवान महावीर द्वारा निर्धारित 12 व्रत भी मानव जाति को संयमित जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा देते हैं। वे अणुव्रत उस वक्त की समस्याओं को ध्यान में रखकर बनाए गए थे। आचार्य तुलसी के आधुनि अणुव्रत विध्वंसात्मक विकास तथा पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय ह्रास का निषेध करते हैं। असंयम ही सब समस्याओं का मुख्य कारण है। अणुव्रत का संयम खलु जीवनाम का संदेश ही मानव जाति को बचा सकता है। हर दिन दुनिया के विभिन्न देशों में प्राकृतिक आपदाओं का अंबार लगा है। अभी उत्तराखंड में ग्लेशियर के क्षतिग्रस्त होने के कारण हमने विनाशलीला देखी है। कोविड-19 भी प्रकृति का आक्रोश ही माना जाएगा। अणुव्रत हमारी स्वच्छंद प्रवृत्ति पर अंकुश लगा सकता है तथा हमें संयमित जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करता है। गत 72 वर्षों में अणुव्रत आंदोलन ने वैश्विक धरातल पर एक पहचान बनाई है। इसमें निहित वहनीयता एवं पारिस्थितिकीय संतुलन के संदेश के कारण ही संयुक्त राष्ट्र ने अणुविभा को, जो इस संदेश की वाहक संस्था है, मान्यता प्रदान की है। अणुव्रत शांति एवं अहिंसा की संस्कृति के विकास में अग्रणी है। इसमें अपार संभावनाएं हैं। अणुव्रत कार्यकर्ताओं का दायित्वहै कि आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ एवं उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी आचार्यश्री महाश्रमण के स्वप्नों को साकार करने के लिए अणुव्रत अभियान को सघन बनाएं।