ये लड़ाई आज साथियों हम किसानों की ही नहीं है ,बल्कि सभी की है ,जो भी उनका अन्न खाते है , इसलिए हम अन्नदाताओं का साथ दीजिए , आपको बता दे की हम किसानों से जुड़े यह तीनों नए कानून देखने में भले ही आपको किसानों के हित में लग रहे हो ,लेकिन असल में, ये बिल प्रतिगामी सोच के साथ बनाएं गए हैं ,और धीरे-धीरे हम किसानों को, जमाखोर व्यापारियों और कॉरपोरेट, मल्टी नेशनल कंपनियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाएगा ,अंततः अन्नदाता के लिए काला कानून ही साबित होंगे । आप ही सोचिए क्या है सरकारी वादा? सरकार का वादा है कि 2022 तक हम किसानों की आय दुगुनी कर दी जाएगी ,2014 का एक और वादा है, जो सरकार के संकल्प पत्र, यानी चुनावी घोषणापत्र में, दर्ज है, न्यूनतम समर्थन मूल्य, स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा के अनुसार कर दिया जाएगा। लेकिन साथियों हम सभी देख रहे हैं कि क्या हो रहा ? वहीं किसानों और संगठनों को भी अंदेशा है कि नए कृषि कानून धीरे-धीरे एमएसपी की प्रथा को खत्म कर देंगे, कांट्रेक्ट फार्मिंग के रूप में एक नए प्रकार के ज़मींदारवाद को जन्म देंगे और आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन के साथ जमाखोरों की एक नयी जमात पैदा कर देंगे, और किसान, प्रेमचंद की कहानियों के पात्र ही बन कर ही रह जायेंगे। मंडियां अप्रासंगिक हो जाएंगी। धीरे-धीरे, किसान, आढ़तिया और जमाखोर व्यापारियों के रहमोकरम पर निर्भर हो जाएंगे। कॉरपोरेट अगर इस क्षेत्र में घुसा तो, खेती ही नहीं, किसानों की अपनी अस्मिता का स्वरूप ही बदल जायेगा। इसलिए यह कानून किसानों के हित में नहीं है और इसका विरोध उचित है।
सरकार को किसानों की शंकाओं का समाधान करना ही चाहिए।देखें तो पहले भी यूपीए और एनडीए की सरकारों ने एमएसपी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन किसानों के दबाव के सामने उन्हें अपने कदम पीछे खींचने पड़े ,अब सरकार ने कोरोना आपदा में एक अवसर की तलाश कर लिया है ,और लॉकडाउन का अनैतिक तरीके से लाभ उठाकर उसने यह तीनों अध्यादेश जारी कर दिए। सरकार को यह उम्मीद थी कि इस लॉकडाउन काल में इन कानूनों का विरोध नहीं होगा, पर सरकार का यह अनुमान गलत साबित हुआ और आज पंजाब , हरियाणा के साथ ही देश के सभी कोनो में जबरदस्त विरोध हो रहा है। आप ही देखो ना किसानों के विरोध को भांपने के लिए अब की बार मक्के और मूंग का एक भी दाना एमएसपी पर नहीं खरीदा गया, आगे आने वाले समय में केंद्र सरकार गेहूं और धान की एमएसपी पर खरीद भी बंद करने की दिशा में बढ़ रही है,यह कहना था ,साथियों किसान संघ के एक सदस्य का ,जो पिछले दिन बोल रहे थे।वहीं साथियों हम सभी जानते है ,की अपना भारत कृषि प्रधान देश है, जिसमें, एक तरफ सरकार व अनेक अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत भी हैं कि कोरोना काल में सिर्फ कृषि क्षेत्र ही देश की आर्थिकी को ज़िंदा रखे हुए है, हम सभी ने देखा भी की पूरे देश में जब लॉकडाउन लगाया गया ,जब सभी लोग घरों में थे ,तब भी हमारा अन्नदाता दिन रात अपने खेतों में पूरे परिवार के साथ मेहनत कर रहे थे,फिर अन्नदाता की हालत क्या है ,आज किसी से छुपा नहीं हुआ है। वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद बंद करके किसानों का शोषण करने का आधार तय कर रही है,आज भी यदि सरकार ने एमएसपी पर किसानों की उपज खरीदना बंद कर दिया तो खेती-किसानी के साथ-साथ देश की खाद्यान्न सुरक्षा भी बड़े संकट में फंस जाएंगी , इन अध्यादेशों के द्वारा भविष्य में सरकार एमएसपी की प्रथा को ही धीरे-धीरे खत्म कर देगी ,हालांकि, केंद्र सरकार यह दावा कर रही है कि इन अध्यादेशों से किसानों का हित होगा, लेकिन यह कैसे होगा, यह, पता नहीं चल रही है। इन कानूनों के आलोचकों का मानना है कि, इससे कॉरपोरेट और बड़ी कम्पनियों को ही लाभ पहुंचेगा एमएसपी के खिलाफ, पूंजीवादी लॉबी शुरू से ही पड़ी है और वह लॉबी देश के कृषि का स्वरूप बदलना चाहती है।
यह तो जगजाहिर है कि सरकार चाहे यूपीए की हो, या एनडीए की, दोनों ही सरकारों का आर्थिक दर्शन और सोच उद्योगों के प्रति झुका हुआ है और खेती की उपेक्षा दोनों ही सरकारों के समय की गयी है, इसीलिए तो आज आजादी के 74 वर्ष हों जाने पर भी अन्नदाता के हालात में सुधार ना होकर बल्कि दयनीय ही हुई है , देखे तो सरकार के ऊपर डब्ल्यूटीओ का दबाव निरंतर पड़ता रहता है ,कि किसानों को मिलने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य और हर प्रकार की सब्सिडी केंद्र सरकार समाप्त करे। इन सब्सिडी और सुविधाओं को जानबूझकर एक फिजूलखर्ची के रूप में पूंजीवादी लॉबी प्रचारित करती रही है , आखिर अन्नदाता के जीवन में कब बदलाव आएगा , जब किसी भी कंपनी के उत्पादन पर एमआरपी लिखा होता है, एमआरपी दर पर ही वस्तुएं हमे मिलती हैं,तो किसानों के आनाज पर एमएसपी क्यों नहीं ? सोचने वाली बात है कि आज तक सरकार कोई भी दल का क्यों ना रही हो , सभी ने खेती ,किसानों का उपेक्षा ही करता रहा है। लेकिन अब सरकार को करना चाहिए कि इन अध्यादेशों के एपीएमसी एक्ट में बेहतर संशोधन करना चाहिए और 1999 में तमिलनाडु सरकार द्वारा लागू की गई ‘उझावर संथाई’ योजना पूरे देश में लागू करनी चाहिए। साथियों इस योजना के अंतर्गत, तमिलनाडु में ‘उझावर संथाई’ मार्केट स्थापित की गई जहां पर किसान सीधे आकर अपना उत्पाद बेचते हैं ,और वहां पर ग्राहक सीधे किसानों से उत्पाद खरीदते हैं। इस योजना पर टिप्पणी करते हुए अभिमन्यु कोहाड़ के लेख में लिखा गया है कि इस योजना से खुले मार्केट के मुकाबले किसानों को 20% ज्यादा कीमत मिलती है और ग्राहकों को 15% कम कीमत पर सामान मिलता है। इन बाजारों के कड़े नियमों के अनुसार सिर्फ किसान ही अपना माल बेच सकता है और किसी व्यापारी को इन बाजारों में घुसने की अनुमति नहीं होती है। सम्पूर्ण दस्तावेज चेक करने के बाद ही किसान इस मार्केट में अपना सामान बेच सकते हैं। इन बाजारों में किसानों से दुकान का कोई किराया नहीं लिया जाता और किसानों को अपना माल स्टोर करने के लिए राज्य सरकार द्वारा फ्री में कोल्ड स्टोरेज व्यवस्था दी जाती है। इसके साथ ‘उझावर संथाई’ मार्केट से जुड़े किसानों को अपना माल लाने ले जाने के लिए सरकारी ट्रांसपोर्ट सुविधा भी मिलती है। वहीं इस नए बिल में तो️ अदालत नहीं, डीएम व एसडीएम करेंगे विवादो का फैंसला जो हमेशा राजनीतिक दबाव मे काम करते हैं ज़िन पर हर रोज तबादले की तलवार लटकी रहती है ,आखिर अन्नदाता को अब अपने न्याय के लिए कोर्ट भी जाने से क्यों रोका जा रहा है?
महाआंदोलन में अन्नदाता का साथ दो, तभी तो रोटी मिलेगा!
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