एक बार माता पार्वती को यह अनुभव हुआ कि उऩको भी अपना गण बनाना चाहिए। सखियों ने भी उनसे अनुरोध किया कि द्वार पर हमेशा शिव के गण होते हैं। आपको अपने गण नियुक्त करने चाहिएं। इससे स्त्री के मान-मर्यादा की भी रक्षा होगी। पार्वती जी को यह विचार अच्छा लगा। एक बार वह स्नान कर रहीं थीं तो उन्होंने अपने मैल से गणेश जी की उत्पत्ति की। ऐसा माना जाता है कि उस समय मध्याह्न का समय था और भाद्र शुक्ल पक्ष की चतुर्थी थी। भगवान गणपति पार्वती जी के अंश से अवतरित हुए और अपनी मातृ भक्ति से वह देवों के देव बन गए। देवी भगवती ने गणपति को अपना गण नियुक्त कर दिया। बालक ने देवी को प्रणाम किया और पूछा, बताओ, मां मेरे लिए क्या आदेश है। पार्वती जी ने कहा कि आज से तुम मेरे गण रहोगे।
देवी ने यह भी कहा कि कोई भी क्यों न आए, लेकिन मेरी अनुमति के बिना किसी को आने मत देना। गणेश जी तो मातृभक्त थे। वह दंड लेकर खड़े हो गए। शिवजी के गणों को भी उन्होंने रोक दिया। गण दौड़कर भगवान शँकर के पास पहुंचे और उनको पूरा वृतांत कह सुनाया। शंकर जी ने कहा, ऐसा नहीं हो सकता। कोई दूसरा कैसे गण नियुक्त हो सकता है। अवश्य तुमको भ्रम रहा होगा। शिव के गण फिर द्वार पर पहुंचे लेकिन इस बार भी गणेश जी ने उनको अंदर जाने से रोक दिया। गणों ने कहा, तुम जानते नहीं हो कि हम शिव के गण हैं। गणेश जी बोले, मैं जानता हूं। लेकिन मुझे मेरी मां की तरफ से आदेश मिला है कि मैं किसी को अंदर प्रवेश नहीं कर दूं। मैं इसी आज्ञा का पालन कर रहा हूं। गण पुन: शंकर जी के पास पहुंचे। कालांतर में शिव के गणों के साथ गणेश जी का युद्ध हुआ।
गणेश जी से सारे देवता हार गए। एक बालक से हारकर देवताओं को बहुत ग्लानि हुई। उनको लगा कि हमारे देवता होने का क्या लाभ। एक बालक ने हमको हरा दिया। देवताओं ने ब्रह्मा जी से कहा कि आप जाइये और बालक को मनाइये। ब्र्रह्मा जी बालक के पास पहुंचे लेकिन बालक ने ब्रह्मा जी को भी कह दिया कि अंदर प्रवेश तब तक नहीं होगा, जब तक कि मेरी माता का आदेश मुझे नहीं मिल जाता। ब्रह्मा और विष्णु दोनों के साथ गणेश जी की वार्ता असफल रही। दोनों ने भगवान शंकर से कहा कि बड़ा अद्भुत बालक है। किसी की सुनता नहीं है। महापराक्रमी है। सब देवताओं को उसने युद्ध में हरा दिया। आपके भी गणों के उसने हरा दिया है। आप ही कुछ निदान करिए।
भगवान शंकर ने कर दिया शिरोच्छेदन
जब सभी गण और देवता हार गए तो भगवान शंकर स्वयं द्वार पर गए। गणेश जी उनको पहचान नहीं सके। गणेश जी ने उनको भी प्रवेश नहीं करने दिया। शंकरजी ने क्रोध में आकर उनका शिरोच्छेदन कर दिया। पार्वती जी तो विलाप करने लगीं। पार्वती इसी शर्त पर मानी कि पहले आप मेरे गणेश पुराने स्वरूप में लाओ। जो शिरोच्छेदन किया है, उसे सही करो। शंकरजी ने अपने गणों से कहा कि उत्तर दिशा में जो भी मिले, उसका सिर ले आओ। गण गए। उत्तर दिशा में एक दन्त हाथी मिला, गण उसी को ले आए। इस तरह गणेश के मुख पर हाथी की सूंड सुशोभित हो गई। नाम पड़ा-गजानन। अंततोगत्वा पार्वती जी के कहने पर ही शंकर जी को घर में प्रवेश मिला। इसके बाद ही गणपति का नाम एकदन्त, गजानन पड़ा। चूंकि वह माता पार्वती के गण थे, इसलिए उनको गणपति कहा जाता है। वह सभी गणों के गणनायक थे, इस कारण भी वह गणपति नाम से ख्यात हैं।
चतुर्थी पर ऐसे हुआ गौरीपुत्र गणपति का जन्म

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