शशि शेखर।।
भारतीय राष्ट्रराज्य का इतिहास छ: दिसंबर, 1992 और नौ नवंबर, 2019 को कैसे दर्ज करेगा? जवाब मुश्किल नहीं है। छ: दिसंबर विध्वंसक और आज यानि नौ नवंबर का दिन व्यवस्था की पुनर्स्थापना के दिवस के तौर पर याद किया जाएगा। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं?
पहले, छ: दिसंबर 1992 की बात। उस दिन सुबह बदन 106 डिग्री बुखार में तप रहा था। नीम बेहोशी के उस कसैले वक्त में अचानक फोन की घंटी बजती है। अयोध्या में तैनात मेरे वरिष्ठ सहयोगी अशोक पाण्डेय उत्तेजना में बोल रहे थे- हजारों कारसेवक विवादित परिसर में घुस आए हैं। कुछ तो गुंबद पर चढ़ गए हैं। उसे तोड़ने की कोशिश की जा रही है। पुलिस के बंदूकची बेबस नजर आ रहे हैं। भीड़ बढ़ती जा रही है। ऐसा लगता है कि अब इस ढांचे को कोई नहीं बचा पाएगा।
पता नहीं, अशोक ने वह फोन कैसे और कहां से किया था? माना जा रहा था कि सरकार ने तमाम फोन कटवा दिए हैं, पर वह कहीं से एसटीडी सेवा वाला फोन पाने में कामयाब रहे थे। नई पीढ़ी के दोस्तों को बताता चलूं कि उन दिनों निजी न्यूज चैनल और उनकी ओ.बी. वैन नहीं थीं। इंटरनेट को कोई जानता नहीं था। मोबाइल फोन की कल्पना नहीं की जा सकती थी। फैक्स की ‘क्रांतिकारी’ आमद कुछ ही दिन बीते थे। वे जिन एसटीडी लाइनों के भरोसे चलते थे, उनका सिर्फ भगवान मालिक था। ऐसे में, अशोक की इस कोशिश के लिए धन्यवाद बनता था।
खबर अखबारनवीस को उत्तेजित करती है। मैं लड़खड़ाता हुआ उठा और सीधा नल के नीचे खड़ा हो गया। ठंडे पानी ने बुखार को कुछ कम किया। जब कंपकंपाता हुआ गुसलखाने से बाहर निकला, तो आग-बबूला पत्नी पूछ रही थीं- ये क्या? जवाब देने की बजाय आनन-फानन में कपडे़ पहने और दफ्तर की ओर भागा। शहर की सड़कों पर उस समय तक लोग इकट्ठा होना शुरू हो गए थे। उन्हें सही खबर की दरकार थी। उसका कोई जरिया न था। सरकारी रेडियो और दूरदर्शन ने चुप्पी की चादर ओढ़ रखी थी।
दफ्तर में साथियों के साथ मीटिंग कर ही रहा था कि सूचना मिली कि बहुत से लोग अंदर घुस आए हैं। वे साधारण जन थे, पर उनकी धार्मिक भावना उफान मार रही थी। ‘जय श्रीराम’ के नारों से दफ्तर गूंज रहा था। उधर से गुजरते अपर जिला अधिकारी, नगर और नगर पुलिस अधीक्षक अखबार के दफ्तर पर जुटा मजमा देख अंदर मेरे कक्ष में आ गए थे। उन्हें हमारी सुरक्षा की चिंता थी। भीड़ सिर्फ समाचार जानना चाहती थी, पर उनका मानना था कि सामूहिक उत्तेजना कभी भी विध्वंसक हो सकती है।
उन्होंने अनुरोध किया कि आप बाहर जाकर कुछ शब्द बोल दें। एक जाने-पहचाने संपादक की बात उन्हें शांति और समझ प्रदान करेगी। मैं कार्यालय के बाहर आया, तो दंग रह गया। हमारे अहाते के अलावा गली के मोड़ तक जहां तक दृष्टि जाती, सिर्फ लोगों का जमावड़ा दिख रहा था। वे नारे लगा रहे थे। मैंने उनसे हाथ जोड़कर अनुरोध किया कि कृपया धीरज रखिए। हम आपके लिए ही अखबार छाप रहे हैं। कुछ ही समय में हम आपको अयोध्या की एक-एक जानकारी से अवगत कराता हुआ विशेष संस्करण मुहैया करा देंगे पर उसके लिए हमें शांतिभरा वक्त चाहिए।
लोग शांत हो गए। उनके लौटने पर हमने आश्वस्ति की सांस ली और काम में जुट पडे़। समाचार एजेंसियां अपर्याप्त जानकारी दे रही थीं। संवाददाताओं के फोन ही अकेला जरिया थे, पर उनसे संपर्क साधना मुश्किल था। इसी जद्दोजहद में दोपहर ढलान पर आ गई थी। दिन में ढाई बजे का वक्त रहा होगा कि फिर से सैकड़ों लोग दफ्तर में घुस आए। इस बार अति-आत्मविश्वास से मैं बाहर निकला पर, जो हुआ वह अप्रत्याशित था।
एक आदमी ने मुझे कंधे पर उठा लिया। वह मुझे बाहर की ओर ले चला। कंधे पर सवार नेताओं को तो देखा था, पर मेरे लिए वह कुछ लिजलिजा-सा अनुभव था। मुझे उठाए शख्स को मालूम तक नहीं था कि उसे जाना किधर है? बाहर हजारों लोगों की भीड़ थी। उन्हें खबर चाहिए थी। पुलिस अधिकारी जा चुके थे। मेरे मन में आशंका उपज रही थी कि कहीं भगदड़ मच गई, तो मैं लोगों के पैरों तले कुचल जाऊंगा। इससे बेखबर वह शख्स और हमें धकियाते हुए लोग बाहर मुख्य सड़क तक पहुंच चुके थे। सामने वैश्य छात्रावास की चारदीवारी थी। मैंने इशारा किया कि मुझे उस पर खड़ा कर दो। कई हाथों ने मुझे लगभग उछालते हुए उस पर चस्पां कर दिया। कुछ जोशीले नौजवान अगल-बगल चढ़ आए। उस क्षण मैंने पाया कि मेरा बुखार उतर चुका है।
किसी तरह सूजी टॉन्सिल वाले गले से जो जानकारी अब तक मिली थी, उन्हें दी और हाथ जोड़कर कहा कि कृपया लौट जाएं, सड़क जाम हो गई है। हम आपको अखबार तभी दे पाएंगे, जब आप मुझे मुक्त करेंगे। कुछ समझदार लोगों ने साथ दिया। भीड़ तो बाद में छंटी पर कम से कम मुझे और मेरे साथियों को दफ्तर लौटने का गलियारा उपलब्ध हो गया। उस समय अस्ताचलगामी सूर्य और धुंधलाती रोशनी अशुभ संकेत दे रही थी।
देखते-देखते सुलहकुल का हमारा शहर सांप्रदायिक उन्माद की चपेट में आ गया। प्रशासन ने कर्फ्यू घोषित कर दिया, पर लोग बेकाबू थे। पुलिस भी उन्हें रोकने में बहुत दिलचस्पी लेती नहीं दिख रही थी। उसी समय, एक अभूतपूर्व मंजर देखने को मिला। कमला नगर में भाजपा के वरिष्ठ नेता सत्यप्रकाश विकल रहा करते थे। वह अचानक घर से निकल पडे़। कहां? क्यों? आजतक पता नहीं, पर लोग उनके पीछे आते गए। वे चलते रहे, कारवां बढ़ता गया। ‘जय श्रीराम’, ‘कसम राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे’ और भी न जाने क्या-क्या। देखते-देखते सैकड़ों लोग इस जत्थे में शामिल हो गए। उत्तेजना में सराबोर ये लोग भी नहीं जानते थे कि वे कहां और क्यों जा रहे हैं?
उन्हें रोकना जरूरी था। मैंने उस दिन पुलिस के मनोबल और कार्यक्षमता का अनोखा नमूना देखा। करमवीर सिंह आगरा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हुआ करते थे। उनके पास पर्याप्त संख्या बल न था, पर वह घटिया आजम खां चौराहे पर, जो थोड़ी ऊंचाई पर स्थित है, कुछ दर्जन सिपाहियों और अधिकारियों के साथ आ डटे। अपनी कमर में एक रस्सा लपेटा। बारी-बारी से सभी पुलिसकर्मियों ने ऐसा ही किया। अब सामने से आते जन-सैलाब के सामने एक जनदीवार खड़ी थी। कर्मवीर ने जोर से कहा कि हमारे साथ जो भी हो जाए, हम किसी को यहां से आगे नहीं जाने देंगे। ऐसा ही हुआ। भीड़ कुछ धक्का-मुक्की, कुछ तड़क-भड़क के बाद लौट गई। अगर उस दिन कर्मवीर सिंह ने हिम्मत नहीं दिखाई होती, तो क्या होता? सोचकर दिल कांप जाता है।
यही हाल देश के अन्य हिस्सों का था। धार्मिक उत्तेजना ने सामाजिक ढांचे को तोड़ना-मरोड़ना शुरू कर दिया था और अगले कुछ दिन विध्वंस के थे। तीन हजार से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी और अरबों रुपये का नुकसान हुआ। भारत की समरसतावादी संस्कृति का जो नुकसान हुआ, वह अलग। अगले कुछ साल हर भारतीय प्रधानमंत्री को विदेशी मंचों पर बाबरी मस्जिद और इस ध्वंसलीला की सफाई देनी पड़ती।
इसीलिए कुछ गर्व और कुछ पुलक के साथ कह रहा हूं। आज यानी नौ नवंबर, 2019 का दिन उन शर्मनाक दिनों को सदा-सर्वदा के लिए जमींदोज करने वाला साबित हो रहा है। इन पंक्तियों को लिखते समय पटना से खबर आ रही है कि हिंदू-मुस्लिम एक साथ फोटो खिंचवा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर उरई में मुस्लिम धर्मगुरुओं ने एक हिंदू महंत को फूल देकर शुभकामनाएं जताई हैं। बहुसंख्यक समाज ने भी कहीं जुनून या इंतिहा का परिचय नहीं दिया। और तो और, इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सोशल मीडिया के ‘सुपारी किलर’ तक चुप हैं। क्या यह सरकार का इकबाल है? या, समाज का सकारात्मक दबाव? जो हो, पर इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
यह ठीक है कि मेरठ में कुछ नवयुवकों ने माहौल बिगाड़ने की कोशिश की, पर इतने विशाल देश में हर तरह के लोग हैं। सुकून की बात है कि उन्हें तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें कोई मददगार तक नहीं मिला। सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के संयोजक कमाल फारूकी, असदुद्दीन ओवैसी सहित कुछ लोगों ने असंतोष जताया, पर वह भी संविधान की मर्यादा और सीमा के परे न था। उम्मीद है, आने वाले दिन भी ऐसे ही गुजरेंगे।
क्या संयोग है! आज अल्लामा इकबाल का जन्मदिन भी है। इस महान कवि ने श्रीराम को इमाम-ए-हिंद की पदवी से नवाजा था। बाद में वह भले ही पाकिस्तान के समर्थक हो गए हों, पर आज भी उनकी कृति- ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’, हम सबको कंठस्थ है। क्या हमारा हिन्दुस्तान सारे जहां से अच्छा बनने की दिशा में अग्रसर है? आने वाले कुछ दिन इस जिज्ञासा का जवाब देंगे।
Thanks:www.livehindustan.com