शशि शेखर।।
अब अयोध्या के फैसले का इंतजार खत्म होने को है। वर्षों पुराने विवाद जब चुक रहे होते हैं, तो अनहोनी की आशंकाएं हर तरफ सिर उठाती नजर आती हैं। इस मामले ने पहले भी कई घाव दिए हैं, इसलिए आशंकाएं उपजनी स्वाभाविक हैं। साथ ही यह सवाल उठना भी वाजिब है कि क्या भारतीय मनीषा इतनी परिपक्व हो चुकी है कि वह देश की आला अदालत के फैसले को शांति और सम्मान के साथ स्वीकार कर सके? मैं तीन उदाहरणों के जरिए बताना चाहूंगा कि क्यों हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए।
पहला उदाहरण नवंबर 1984 का है। सिख विरोधी हिंसा थम चुकी थी और अमन-पसंद लोग अपने यकीन पर पड़ी खराशें सहला रहे थे। इलाहाबाद में कफ्र्यू हट चुका था, पर पीड़ितों का संत्रास अभी भी चरम पर था। उन दुखदाई दिनों में से एक दोपहर मेरे दिलो-दिमाग पर स्थाई छाप छोड़ गई। मैं लीडर रोड स्थित अपने कार्यालय जा रहा था, तभी देखा कि सेना की तीन गाड़ियां सड़क के किनारे सलीके से ‘पार्क’ हैं। उनके पास स्वचालित हथियार लिए लगभग एक दर्जन वर्दीधारी सिख अफसर और जवान खडे़ हैं। वे अपलक सड़क पार उन दो दुकानों को निहार रहे थे, जो लूटपाट और आगजनी की शिकार हुई थीं। मैंने थमकर उनके चेहरे पढ़ने की कोशिश की।
जवानों की आंखों से शोले बरस रहे थे और उनके चेहरे पर वहशत नाच रही थी। उसी क्षण मेरे मन में सवाल कौंधा कि अगर इन्होंने अपनी बंदूकों के मुंह खोल दिए, तो? सड़क भीड़ से भरी हुई है, क्या होगा? ऐसा नहीं हुआ। वजह? सेना का प्रशिक्षण और सह-अस्तित्ववादी संस्कारों ने उनके मन के अंदर उपजती प्रतिहिंसा पर लौह आवरण डाल रखा था। इसे भेदना खुद उनके वश में न था। थोड़ी देर रुककर उन्होंने वापस छावनी का रुख किया। उस क्षण लगा था कि एक अनहोनी होते-होते टल गई।
बाद के कुछ महीने सचमुच आश्चर्यजनक थे। दंगा पीड़ितों ने अपनी दुकानें फिर से सजा ली थीं। वे अब एक नई जिंदगी के सम्मुख ताकत और इज्जत के साथ प्रस्तुत थे। जिस भीड़ ने उन पर हमला किया था, उन्हीं में कुछ लोग अखबारों की इन पंक्तियों से शर्मिंदा महसूस कर रहे थे कि ‘पाकिस्तान से लुट-पिटकर अमन-चैन के लिए अपने देश आए लोगों को उनके ही लोगों ने लूट लिया।’
यह दुर्योग सिर्फ इलाहाबाद नहीं, बल्कि उत्तर भारत के कई शहरों पर टूटा था। राजधानी दिल्ली इसकी सर्वाधिक शिकार बनी थी। देश में इस दौरान तीन हजार लोग मारे गए थे, जिनमें से 2,800 अकेले दिल्ली में थे। अफसोस, इस हिंसा की जद में आए तमाम लोग आज भी इंसाफ का दरवाजा खटखटा रहे हैं। पिछले साल नवंबर में दिल्ली उच्च न्यायालय ने 88 लोगों के खिलाफ निचली अदालत के फैसले को सही ठहराया था।
निचली अदालत ने 23 साल पहले 107 आरोपियों में से इन 88 लोगों को त्रिलोकपुरी इलाके के दंगों में दोषी करार दिया था। इसी महीने दिल्ली की एक अदालत ने महिपालपुर इलाके में सिखों के कत्लेआम के जुर्म में एक को फांसी और दूसरे को उम्रकैद की सजा सुनाई। इस दंगे में किसी अपराधी को फांसी की यह पहली सजा थी। पूर्व सांसद सज्जन कुमार दंगों के सिलसिले में आजीवन कारावास की सजा भोग रहे हैं।
यहां सिख कौम की हिम्मत और हौसले की दाद देनी चाहिए। तमाम आघात सहकर भी उन्होंने राष्ट्रधर्म निभाने में कोई कोताही नहीं बरती।
हम हिन्दुस्तानी जब इस दर्द से मुक्त हो रहे थे, तभी 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हो गया। उसके बाद भी पूरे देश में दंगे भड़के। लगभग 2,000 लोग मारे गए और हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति स्वाहा हो गई। इन दंगों की जांच के लिए गठित श्रीकृष्ण आयोग के प्रमुख न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण ने 2012 में एक इंटरव्यू में कहा था- ‘पीड़ितों की कहानियां बहुत हृदय विदारक थीं। मेरी मन:स्थिति बहुत बिगड़ गई थी। मगर जज होने के नाते लोगों की कठिनाइयां सुनने की आदत है मुझे, उस वक्त भी थी।’
उन दिनों मैं आगरा में रहता था। एक महफिल में मैंने शहर के नामचीन व्यापारी को कहते सुना कि हमने तय किया है कि ‘उन लोगों’ के साथ न कोई व्यापार करेंगे और न उन्हें नौकरी देंगे। मुझे बुरा लगा था कि शहर बदल गया, साल बदल गए और परिचितों के चेहरे भी परिवर्तित हो गए, पर हिंसक विभाजन की मानसिकता जस की तस कायम है। डर भी लगा था कि अगर यह भाव पूरे देश में घर कर गया, तो हम न जाने कितने हिन्दुस्तान-पाकिस्तान बनते देखेंगे।
शुक्र है, ऐसा नहीं हुआ। गिरकर लड़खड़ाने और लड़खड़ाकर उठ खडे होने की अद्भुत कला भारतीयों में है। हम फिर से साथ चलने लगे। साल 1985 ने 1984 के घाव भर दिए थे, इस बार यह जिम्मेदारी 1993 के शुरुआती महीनों ने उठाई, पर एक सवाल कायम रह गया कि अयोध्या आस्था की जगह विप्लव का प्रतीक क्यों बनती जा रही है?
यही वजह है कि नौ साल पहले जब इस मुद्दे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट को अपना फैसला सुनाना था, तो हर ओर भय का वातावरण था। लोगों ने अपने बच्चे स्कूल नहीं भेजे थे, कुछ ने दुकानें नहीं खोली थीं, तो कइयों ने अपने काम से छुट्टी ले ली थी। मैं तब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आ बसा था। उस दिन नोएडा से नई दिल्ली स्थित ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के दफ्तर तक हम रोज के मुकाबले जल्दी पहुंचे थे, क्योंकि सड़कों पर भीड़ कम थी। फैसला आने के कुछ ही घंटे बाद लगने लगा कि सारी आशंकाएं निर्मूल थीं। पूरे देश में कहीं पत्थर तक नहीं फेंका गया। कौन कहता है कि हम भारतीय अपनी गलतियों से सीख नहीं हासिल करते?
यही वजह है कि अब जब आला अदालत के अंतिम आदेश की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है, तो आशंकाओं के बावजूद आशावादियों ने अपनी आस कायम रखी है। ऐसे लोग मानते हैं कि इस निर्णय का सटीक अनुपालन ही सच्चा राष्ट्रधर्म होगा। क्यों न हम भी एक नेक उम्मीद पालें कि आशा और आशंका की इस जंग में जीत आशा की होगी?
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