एन के सिंह।।
पिछले पचास-साठ साल में बिहार के सामाजिक परिवेश में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। अपने पहिरावे, रहन-सहन और खान-पान में यहां का आम आदमी पूरी तरह बदल चुका है। अब धोती के ऊपर बुशर्ट पहनने का रिवाज पूरी तरह से खत्म हो गया है। गांवों में लाउडस्पीकर पर भोजपुरी या मैथिली के गानों की जगह आप पंजाबी पॉप सुन सकते हैं। चिकन या अंडा खाने पर अब न तो प्रायश्चित करना पड़ता है, और न ही जाति से बाहर निकाले जाने का खतरा रहता है। पंडितजी की जगह अब बहनें राखी बांधने लगी हैं।
लेकिन आधुनिकता की इस बयार का पारंपरिक छठ पूजा पर थोड़ा भी असर नहीं पड़ा है। उल्टे, पिछले कुछ दशकों में छठ के प्रति लोगों का आकर्षण इस कदर बढ़ा है कि आज यह पर्व सैकड़ों हजार करोड़ के कारोबार में बदल गया है। रेलवे देश के कोने-कोने से बिहार के लिए स्पेशल ट्रेनों का इंतजाम करता है, तो वहीं हवाई जहाज के टिकटों के दाम बढ़ जाते हैं। मुंबई का वाशी हो या दिल्ली का मयूर विहार, भोपाल का गोविंदपुरा हाट हो या कोचीन का ब्रॉडवे बाजार, सब मिनी-बिहार में बदल जाते हैं। दुकानों में छठ पूजा में इस्तेमाल होने वाली सामग्रियां मिलने लगती हैं।
चुस्त जीन्स और झीनी टॉप पहने आधुनिकाओं से लेकर सिलिकन वैली में कंप्यूटर के जटिल अल्गोरिद्म से जूझ रहे इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के महारथियों तक छठ के गीतों का क्रेज इस कदर बढ़ा है कि वह अपने आप में सैकड़ों करोड़ की इंडस्ट्री बन चुका है। न्यूज चैनलों के एंकर सुग्गों की चोंच सोने और चांदी से मढ़ाने में इतना मशगूल हो जाते हैं, कि वे अक्सर भूल जाते हैं कि उनका काम छठी मैया का गुणगान करना नहीं, बल्कि दर्शकों तक खबरें पहुंचाना है। चेन्नई का समुद्र तट हो या चंडीगढ़ की सुखना झील, भोपाल का बड़ा ताल हो या कोलकाता में हुगली का किनारा, देश के कोने-कोने में छठ की छटा छाई रहती है।
पिछले कुछ दशकों में सूर्य देवता की उपासना का यह धार्मिक अनुष्ठान बिहार, झारखंड और भोजपुरीभाषी पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक सामाजिक-सांस्कृतिक त्योहार के रूप में स्थापित हो चुका है। भारतीय स्वभाव से उत्सव-प्रेमी हैं। वे अपने क्षेत्रीय त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। दुनिया भर में रहने वाले मलयालीभाषी ओणम का इंतजार करते है, पंजाबी बैसाखी का, गुजराती नवरात्रि का और असम के लोग बिहू का। लेकिन छठ पर्व जिस रफ्तार से बिहार-झारखंड की सीमा के बाहर फैल रहा है, वह बाजार के डायनेमिक्स की तरफ इशारा करता है।
रोजगार की तलाश में घर-द्वार छोड़कर बिहार-यूपी के बाहर बसने वालों की तादाद कई गुना बढ़ी है। प्रवासी बिहारियों की संख्या बढ़ती जा रही है। वह इस कदर बढ़ रही है कि उसने महाराष्ट्र और गुजरात जैसे संपन्न राज्यों को भयाक्रांत कर दिया है। पहले लोग अपनी दो बीघा जमीन बचाने की जुगत में खाने-कमाने कलकत्ता (अब कोलकाता) और मोरंग जाते थे। मृगतृष्णा के शिकार किसान गिरमिटिया मजदूर बन मॉरिशस और फिजी पहुंच जाते थे। बाद में भैया लोग मुंबई की फुटपाथों पर और भैसों की खटाल में सोने लगे। जिस साल बिहारी मजदूर पंजाब के खेतों में काम करने नहीं पहुंचता है, वहां फसल कम होती है। दिल्ली के यमुना पार इलाके पर उन्होंने इस कदर कब्जा जमाया है कि नेताओं को वोट मांगने के लिए भोजपुरी में भाषण देना पड़ता है।
2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, 10 करोड़ में से लगभग 53 लाख बिहारी राज्य के बाहर रहते हैं। मगर मेरा अनुभव बताता है कि प्रवासियों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है। मेरे बचपन में बिहार के हमारे गांव में जब हम भोज करते थे, तो आठ मन चावल रींधा जाता था। पचास साल बाद जब आबादी दोगुनी से ज्यादा बढ़ चुकी है, हमारा काम चार मन चावल में चल जाता है। जाहिर है, आधे से भी ज्यादा लोग गांव के बाहर रहते हैं। पहले मजदूर अकेले खटने जाता था, अब बीवी-बच्चों को भी साथ ले जाता है।
बिहारियों के खिलाफ पूर्वाग्रह के बावजूद वहां का लेबर फोर्स रोजगार पाने में सफल है। और इसकी सबसे बड़ी वजह है नई से नई जगह में घुल-मिल जाने की उनकी जुगत। हिंदीभाषी लोगों के लिए तमिलनाडु में काम करना कितना कठिन है, हम सब जानते हैं। पर मैंने पाया कि वहां काम कर रहे छपरा के मजदूर धाराप्रवाह तमिल में बात कर रहे थे। अपने गांव-जवार की अद्र्ध-सामंती व्यवस्था ने अगर उन्हें घर से बेघर किया, तो उदार पूंजीवाद ने उनके श्रम के लिए नए बाजार खोले।
प्रवासी बिहारियों के एक और तबके की जरूरत से ज्यादा चर्चा होती रहती है। हर साल हजारों लड़के-लड़कियों के झुंड दिल्ली का रुख करते हैं, कॉलेज की पढ़ाई करने या आईएएस की कोचिंग करने। मुखर्जी नगर के दड़बेनुमा कमरों में दाल-भात-चोखा पर गुजर करते हैं। अपनी आंखों में सजे सपनों और खेत-खलिहानों में खट रहे बाप-दादा की कमाई के सहारे इनमें से कभी कोई कन्हैया कुमार निकल जाता है, तो कोई आईएएस या आईपीएस पास करके अफसर बन जाता है। लगभग हर दसवां आईएएस अफसर उस बिहार से है, जो अभी भी देश का सबसे अनपढ़ राज्य है।
छठ पूजा के विराट होते स्वरूप को प्रवासियों के इस विशाल लश्कर के संदर्भ में समझा जा सकता है। यह उत्सव नोएडा में लिट्टी-चोखा का ठेला लगाने वालों से लेकर लुटियन-टीले के साउथ ब्लॉक में बैठने वाले अपनी जड़ों से कटे प्रवासियों की एक अहम जरूरत पूरा करता है। सुखद स्मृतियों से लगाव का अपना ही रोमांस है। नॉस्टैल्जिया मनुष्य के हृदय को गुद्गुदाता है और ईगो को सहलाता है। तभी तो वह पीले पड़ गए कागज पर लिखे प्रेमपत्रों को अपनी झांपी में सहेजकर रखता है या मुरझा चुकी गुलाब की पंखुड़ियों को किताब के पन्नों में दबाकर रखता है। छठ पर्व के प्रति यह बढ़ता लगाव, खासकर प्रवासी बिहारियों में, इसी कैटेगरी में आता है। परदेस में बसे लोग अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं। और छठी मैया इसमें उनकी मदद करती हैं।
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