रवि जैन/वसई। श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ मेवाड़, उप संघ वसई भवन में सजे आनंद अम्बेश अजित दरबार में चातुरमसार्थ विराजित आगमज्ञाता साहित्य रसिका पुज्या साध्वी श्री विश्ववंदनाजी मा.सा. “प्रिया” तथा विद्याभिलाषी पुज्या साध्वी श्री परमेष्टीवंदनाजी मा.सा. “तरू” आदि ठाणा के सानिध्य में प्रतिदिन प्रवचन एवं धार्मिक कार्यक्रम चल रहे हैं।
गुरुवार को उपस्थित श्रावक-श्राविकाओं को संबोधित करते हुए अध्यात्म, तप, आराधना एवं दान की महिमा समझाते हुए साहित्य विदुषी विश्ववंदना जी ने फरमाया कि दान समस्त प्रकार की दुर्गतियों का नाश करता है ।उससे मनुष्य के हृदय में से संकीर्णता निकल जाती है। उसका हृदय विशाल और विराट बन जाता है ।उसकी सोई हुई मानवता जागृत हो जाती है ।हृदय में प्रेम तथा दया की मंदाकिनी बहने लगती है ।इसके फलस्वरूप ऐसे व्यक्ति के आस-पास और दूर-दूर तक सहानुभूति का एक सुंदर वातावरण बन जाता है ।दानी व्यक्ति के लिए संसार में कुछ भी वस्तु अप्राप्य नहीं रह जाती और वह सारे संसार के लिए प्रेम तथा आदर का पात्र बन जाता है। विश्व के लिए एक आदर्श बन जाता है।
वे बुधवार को व्याख्यान सभागार में अपने दैनिक प्रवचन के दौरान अपने विचार व्यक्त कर रही थी। उन्होंने कहा दान धर्म सबसे बड़ा धर्म है ।हमारा भारतवर्ष धर्म प्रधान देश है ही ।आदिकाल से ही भारत वर्ष में बड़े बड़े दानी होते चले आए हैं ।उनकी दान भावना के गुण हम आज भी कहते हैं, और आने वाली पीढ़ियां भी उनके इस गुण का स्मरण करती रहेगी ।महादानी कर्ण की कथा हम सभी जानते हैं, प्राण रहे या ना रहे किंतु कोई याचक उनके द्वार से निराश चला जाए यह संभव ही न था। वे दिव्य कवच एवं कुंडल के साथ उत्पन्न हुए थे ।जब तक वह कवच एवं कुंडल उनके शरीर से जुड़े रहे थे ,तब तक उनके शरीर का कोई भी शत्रु नाश नहीं कर सकता था, वह इस बात को जानते थे। साध्वी ने कर्ण से जुड़ी हुई एक कथा का उदृत प्रस्तुत करते हुए कहा कि एक बार जब इंद्र ब्राह्मण का वेश बनाकर याचक के रूप में उनके द्वार पर आया और उनके वे कवच -कुंडल मांगे तो महादानी कर्ण ने सब कुछ जानते हुए भी अपने प्राणों का मोह त्याग कर वे कवच एवं कुंडल याचक को दान में दे दिए ।दान के ऐसे उज्जवल उदाहरण भारत के अतिरिक्त और किसी भी देश में नहीं मिल सकते हैं।
दान विषय पर ही अपने विचार व्यक्त करती हुई साध्वी परमेष्ठीवंदना ने कहा कि वे लोग बड़े पुण्यशाली, दिव्य, भाग्यवान व्यक्ति होते हैं ,जो अपनी गाढ़ी कमाई में से पर्याप्त धन परोपकार के कार्यों में खर्च कर सकते हैं। वह देवताओं से किसी प्रकार कम नहीं है ।वे वीर हैं। दानवीर हैं। यह दान किसी दबाव से प्रेरित न होकर प्रसन्न भाव से स्वेच्छा से ही होना चाहिए ।जो लोग ऐसा कर पाते हैं ,वह मानवता की श्रेष्ठतम ऊंचाइयों पर यदि पहुंच जाए तो इसमें आश्चर्य नहीं है । अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि विश्व के श्रेष्ठतम धर्म जैन धर्म में दान को सर्वोच्च प्रथम स्थान प्रदान किया गया है। दान देने वाले को स्वर्ग तथा उससे भी आगे मोक्ष का अधिकारी कहा गया है। भगवान महावीर के जीवन पर अगर दृष्टिपात करें ,वे स्वयं महादानी थे ।बचपन से ही दान की प्रवृत्ति उनके अंतर्मन में बसी हुई थी ।दान से उन्हें बहुत प्रेम था, किसी भी निर्धन भूखे को वे देखते ही उसके अभाव को प्रभूत दान द्वारा दूर कर देते थे।
वसई में चल रहे चातुर्मास के दौरान कई भाई बहन उपवास, धर्म चर्चा ,एकासन के अलावा आठ एवं ग्यारह दिनों की तपस्या तक भी पहुंच चुके हैं। आयोजित व्याख्यान सभा के दौरान विदुषी साध्वी विश्व वंदना ने सभी तपस्वीयो की सुख साता के लिए अमृत पचकान देने के साथ -साथ मांगलिक सुनाया तथा कामना की कि धर्म के मार्ग पर चलने वाले सभी श्रावको के यहां खुशहाली एवं संपन्नता बनी रहे।
इस मौके पर श्रावक-श्राविकाओं की अच्छी उपस्थिति रही।
दान से होता है दुर्गतियों का नाश : विश्ववंदना म. सा.
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