अक्षय तृतीया जैन धर्म का प्रमुख त्योंहार है। ऋषभनाथ ने तेरह महीने दस दिन की घोर तपस्या का पारणा अपने प्रपोत्र श्रेयांस कुमार के हाथों से इक्षुरस से किया तब से ही बैसाख शुक्ला तीज को लोग बहुत महत्त्व देने लग गए। सांसारिक लोग अपने मांगलिक कार्य दुकान मकान संस्थान का मुहूर्त ही नहीं विवाह सगाई के लिए भी इस दिन को उपयुक्त मानने लग गए और इसदिन को अपूछ मुहूर्त अपूछ सावा भी कहने लग गए।
भगवान ऋषभ इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर थे इसलिए आदिनाथ नाम से भी जाने जाते हैं। भगवान ऋषभ नाभिराज मरुदेवा माता के सुपुत्र थे। उनका जन्म उत्तरप्रदेश आयोध्या नगरी मैं हुआ। आपके दो पत्नियां थी सुनंदा और सुमंगला। आपका परिवार बहुत विशाल था। १०० पुत्र और दो पुत्रियां थी। आपने सभी को जन्म के साथ जीवन जीने की कला सिखलाई, उसी का ही सुपरिणाम मानता हूँ कि परिवार में दीक्षित होने वालों की संख्या भी भरपूर थी। ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य देकर ऋषभ दीक्षित हुए। ऋषभ की दीक्षा को सुनकर तीन हज़ार लोग और तैयार हो गए। इस प्रकार दीक्षित होने वालों की एक साथ संख्या बढ़ गई। परंतु लोगों को जानकारी नहीं कि इन साधुओं को आहार कैसे बहराया जाए। साधु के लिए क्या कल्पनीय है और क्या अकल्पनीय है। इसका बोध नहीं होने के कारण जब ऋषभ भिक्षा:के लिए जाते तो लोग उन्हें हाथी घोड़े रत्न आदि उपहार करते परंतु ऋषभ इसे अकल्पनीय समझकर आगेबढ़ जाते।
ऋषभ ने दीक्षा के साथ ही मौन साधना प्रारंभ कर दी। लोगों को आहार की जानकारी नहीं थी और इतने बंड़े राजा होकर ऋषि बने हैं इसलिए लोग रोटी सब्जी जैसे साधारण पदार्थों की मनुहार भी नहीं करते। ऋषभ पैदल ही भरमंण करते इसलिए अपने शिक्षित हाथी घोड़े की इसलिए मनुहार करते की बाबा को पैदल नहीं चलना पड़े। परंतु ऋषभ आहार पानी नहीं मिलनें पर भी कभी कम्पायमान नहीं हुए, निरंतर साधना में आगे बढ़ते रहे। ऋषभ के साथ दीक्षित होने वाले तीन हज़ार साधु आहार पानी के अभाव में विचलित हो गए। कोई जटाधारी बन गया, कोई कन्द मूल भषण करने लग गया। इस प्रकार तब से ही अनेक मत मतांतर हो गए। परंतु ऋषभ अपने संकल्प पर अडोल रहे। उनको आठों कर्मों का बोध था। उन्होंने सोचा यह मेरे दवारा ही बांधा हुआ अन्तराय कर्म है जैसे ही यह दूर होगा तब सब कुछ उपलब्ध हो जायेगा।
भगवान ऋषभ के जन्म से पूर्व कल्पवृक्षों के सहारे लोग अपना जीवन यापन करते थे। वृक्ष के फलों का सेवन कर, उदरपूर्ति कर लेते, वृक्षों की छात्र से शरीर की सुरक्षा कर लेते। परंतु जब वृक्षों ने फल देने बंद कर दिए तब लोगो के सामने उदरपूर्ति की समस्या आह तब कक नें हो उन्हें खेती का बोध दिया, फसल तैयार होने पर काटने और अनाज को प्राप्त करने के लिए उन्हें प्रशिक्षण दिया गया। कटी फसल पर पशुओं को घुमाओ जिससे उनके पैरों के योग से अनाज और फू कि जाय शो ने वैसा ही किया परंतु बैल भी अपनी भूख मिटाने उसे खाने लग गए। लोगो ने सोचा अगर सारा पशु चाट कर जाएंगे, तो हमारा काम कैसे चलेगा। ऋषभ के पास आए और अपनी समस्या रखी। ऋषभ ने इसका समाधान देते हुए कहा कि पशुओं के मुँह पर छिंकी बांध दी जाए, जिससे समस्या मिट जाएगी चक्रया और अनाज तूही रहित हो गया।
सबके मन में अनाज को प्राप्त कर खुशी हुई। परंतु बैलों की छिंकी खोलना भूल गए। भूख प्यास एक व्याकल बैल छटपटाने लगे। लोगों ने देखा बैल न चारा चर रहे न पानी पी रहे हैं। ऋषभ के पास आकर अपनी समस्या रखी तब ऋषभ ने कहा कि उमकी छिंकी खोली क्या ? लोगों ने कहा वह तो नहीं खोली। ऋषभ ने कहा छिंकी खोले बिना चारा कैसे चरेंगे ? लोग अपने स्थान पर आये और छिंकी खोलते ही बैल पूर्ववत चरने लग गए। उस समय अन्तराय काल ऐसा बंधा कि भगवान ऋषभ को भी तेरह महीना दस दिन घर घर घूमने पर भी आहार पानी का योग नहीं मिला। भगवान ऋषभ के पुत्र सोमप्रभ के सुपुत्र श्रेयांस को मेरु सिंचन का स्वप्न आया और घर में एक सो आठ इक्षु घट की भेंट आई हुई थी। श्रेयांस का सहसा ध्यान गया कि ऋषभ से बढ़कर मेरु पर्वत कौन होगा। भगवान का उधर पादर्पण हुआ और ऋषभ ने शुद्ध प्रासुक इक्षु रस की अर्ज की और भगवान ने अपने अविधज्ञान से देखा कि यह निर्दोष है, मेरे लिए नहीं मंगवाया गया है। उन्होंने श्रेयांस की अर्ज पर ध्यान देकर उसी के हाथों से पारणा किया।
देवताओं ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अहोदानं अहोदानं की ध्वनि की, जन – जन के मन में ख़ुशी का संचार हुआ और लोग अब समझ गए कि ऋषभ को हाथी घोड़े हीरे पन्ने की आवश्यकता नहीं, शरीर चलाने को शुद्धाहार की आवश्यकता है और सदासदा के लिए समस्या का समाधान हो गया। भगवान ऋषभ की शारीरिक शक्ति इस प्रकार थी कि तेरह महीने दस दिन बिना आहार पानी के निकाल दिए। वर्तमान में दिन में कई बार खाने पीने वाले लोग भी कमजोरी महसूस करते हैं और ताकत की दवाई भी लेनी पड़ती है। फिर भी हम देखते हैं कि भगवान ऋषभ की तपस्या का स्मरण कर हज़ारों लोग एक दिन छोड़कर एक दिन आहार कर वर्षीतप की आराधना करते हैं ।
भगवान ने तो लम्बे समय तक चौबिहार तप तथा वर्तमान में वर्षीतप करने वाले उपवास भी चौविहार कम कर पाते हैं। कई लोग पारणे के दिन राजिज पानी आदि ले लेते हैं, उन्हें चाहिए की वर्षीतप की साधना में कम से कम पारणा के दिन भी रात्रि में चोविहार करना चांहिए। इसका प्रारम्भ चैत्र कृष्णा अष्टमी को भगवान ऋषभ के दीक्षा दिवस पर किया जाता है और पूर्ण वैशाख धुल तीज को कियाजाता है। इस तप का प्रारंभ तेरापंथ समाज में आचार्य श्री तुलसी के शासन कालू आचार्य श्री महाश्रमणजी के सान्निध्य में इसकी संख्या सर्वत्कृष्ट कही जा सकती है , वर्षी तप के इच्छुक भाई बहनों को श्रावक संदेशिका अवश्य देख लेनी चाहिए, उसमें इस तप की व्यवस्थित जानकारी प्राप्त हो सकती है।
कैसे कहलाई अक्षय तृतीया: भगवान ऋषभ के पारणे से बढ़ा अक्षय तृतीया का महत्व
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