- बहते अश्रुधारा व बरसते मेघ से निस्पृह आचार्य महाश्रमण ने किया मंगल प्रस्थान
- लगभग साढ़े बारह किलोमीटर का विहार कर अहिंसा यात्रा संग पहुंचे मंगरोप
- समता की साधना कर स्वयं को बनाएं विशेष प्रसन्न: आचार्य महाश्रमण
20.11.2021, शनिवार, मंगरोप, भीलवाड़ा (राजस्थान)। वस्त्रनगरी भीलवाड़ा में ऐतिहासिक चतुर्मास सम्पन्न कर जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता, अखण्ड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी धवल सेना के संग आदित्य विहार स्थित तेरापंथ नगर चतुर्मास प्रवास स्थल से 8.41 बजे अपने ज्योतिचरणों गतिमान किया तो मानों भीलवाड़ावासियों के भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। श्रद्धालुओं के नेत्रों से बहती अश्रुधारा, बरसते मेघ और मौसम की प्रतिकूलता आदि से निस्पृह आचार्यश्री महाश्रमणजी जनकल्याण के लिए यात्रायित हुए। भीलवाड़ा के हजारों श्रद्धालु अपने आराध्य को विदाई देने के लिए प्रातःकाल ही पहुंच गए थे वहीं बीदासर आदि क्षेत्रों के सैंकड़ो श्रद्धालु अपने आराध्य के स्वागत में उपस्थित थे। भीलवाड़ावासियों के चेहरे पर विदाई के भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। वे अपने आराध्य को विदा करना तो नहीं चाहते थे, किन्तु अपने आराध्यदेव में अपार आस्था के कारण कुछ कह नहीं पा रहे थे। उनकी बातें मुखरित तो नहीं हो रही थीं, किन्तु सभी की नेत्र आचार्यश्री से रुकने की विनती लिए सजल नजर आ रहे थे। समता के साधक आचार्यश्री ने निर्धारित समय पर चतुर्मास स्थल से मंगल प्रस्थान किया। मंगल जयघोष करते हुए उपस्थित जनमेदिनी अपने आराध्य के युगल चरणों का अनुगमन करने लगीं। हल्की बूंदाबांदी के बीच आचार्यश्री लगभग साढे बारह किलोमीटर का विहार कर मंगरोप स्थित राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय के प्रांगण में पधारे। जहां मंगरोपवासियों व विद्यालय परिवार द्वारा आचार्यश्री का अभिनन्दन किया गया।
विद्यालय परिसर में बने डॉक्टर सर्वपल्लीराधाकृष्णन भवन से आचार्यश्री ने उपस्थित श्रद्धालुओं को पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि आदमी को विशेष प्रसन्न बनाने का प्रयास करना चाहिए। चित्त निर्मल रहे, समता और शांति रहे तो विशेष प्रसन्नता की बात हो सकती है। समता में रहने की प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा और अभ्यास कर आदमी स्वयं को विशेष प्रसन्न बना सकता है।
आचार्यश्री ने समता को धर्म बताते हुए कहा कि साधु को तो विशेष रूप से समता की साधना करने वाला होना चाहिए। क्योंकि वह द्वंदात्मक स्थितियों में समता भाव का साधक होता है। जैसे आदमी लाभ में प्रसन्न और हानि में दुखी हो जाता है। कभी उसे सम्मान मिलता है तो कोई निंदा भी कर देता है। अनुकूल परिस्थितियों में प्रसन्न और प्रतिकूल परिस्थितियों में अप्रसन्न अर्थात दुःखी बनता है। आदमी को भी समता की साधना, प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा कर द्वंदात्मक स्थितियों में समता का भाव रखने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री ने अहिंसा यात्रा के उद्देश्यों का वर्णन करते हुए समुपस्थित मंगरोपवासियों से अहिंसा यात्रा के संकल्प स्वीकार करने प्रेरणा प्रदान की तो लोगों ने सहर्ष आचार्यश्री से अहिंसा यात्रा की संकल्पत्रयी स्वीकार की। आचार्यश्री के स्वागत में श्री भगवान गुर्जर, जैन समाज के श्री सुरेश सुराणा, श्री कुलदीप चण्डालिया, स्कूल की ओर से विमला जयसवाल, श्री प्रताप चण्डालिया, श्री राघव सोमानी व बेंगलुरु चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के अध्यक्ष रहे श्री मूलचन्द नाहर ने अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति दी।