माला दीक्षित।।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई टलने के बाद अयोध्या में राममंदिर बनाने के लिए कानून लाने का सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है। कोई आंदोलन की चेतावनी दे रहा है तो कोई प्राइवेट बिल लाने की बात कर रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित रहने के दौरान इस पर कानून लाया जा सकता है? कानूनविदों की मानें तो विधायिका के पास कानून लाने की शक्तियां असीमित हैं लेकिन यह मुद्दा इतना आसान नहीं है कई दौर की मुकदमेबाजी और अभी भी विवाद का सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन होना कानून की राह में रोड़े अटकाएगा। कानून तैयार करते हुए बहुत साध कर कदम बढ़ाने होंगे।
अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद
अयोध्या विवाद को भले ही कभी टिप्पणी में सुप्रीम कोर्ट ने महज जमीनी विवाद करार दिया हो, लेकिन हकीकत यही है कि यह संवेदनशील मुद्दा है। इसमें देश के दो बड़े समुदाय आमने-सामने हैं। सरकार को कोई भी कदम उठाते समय संवैधानिक दायरे का ख्याल रखना होगा। पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आरएम लोढा कहते हैं कि ‘कानून लाया जा सकता है, लेकिन सीधे तौर पर कोर्ट का फैसला नहीं पलटा जा सकता। फैसले का आधार खत्म किया जा सकता है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिसमें सरकार ने कानून से फैसला पलटने की कोशिश की और बाद में कोर्ट ने उस कानून को रद किया। कानून लाने की सीमाएं हैं अगर कानून लाते समय इनका ध्यान नहीं रखा जाएगा तो कोर्ट में जाकर निरस्त हो जाएगा।’
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज चेलमेश्वर भी शुक्रवार को एक कार्यक्रम में मुंबई मे कह चुके हैं कि इस पर कानून लाया जा सकता है। हालांकि इससे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जीपी माथुर बहुत सहमत नहीं दिखते। वह कहते हैं कि ‘कानून तो लाया जा सकता है, लेकिन सवाल है कि कैसा कानून लाया जाएगा। कानून को अगर कोई कोर्ट में चुनौती देगा और कोर्ट ने कानून पर अंतरिम रोक लगा दी तो स्थिति जस की तस रहेगी। ऐसे में बेहतर होगा कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का इंतजार करे।’
सरकार को तय करना होगा कि वह क्या करना चाहती है – सुभाष कश्यप
सरकार के पास मौजूद विकल्पों पर बात करते हुए संविधानविद सुभाष कश्यप कहते हैं कि ‘कानून बनाने में संसद सुप्रीम है। अदालत में मामला लंबित होने पर विधायिका की कानून बनाने की शक्तियां खत्म नहीं होतीं। सरकार को तय करना होगा कि वह क्या करना चाहती है। सामान्य तौर पर अदालत में लंबित होने पर संसद मामले में दखल नहीं देती इसी तरह संसद में लंबित होने पर कोर्ट दखल नहीं देता।’ वह देरी की बात उठाते हुए कहते हैं, ‘यहां परिस्थितियां विशिष्ट हैं। 70 साल से केस अदालत में है। आठ साल से सुप्रीम कोर्ट में हैं। अगर 70 साल से अदालत में मामला नहीं तय हो पा रहा है तो सरकार को निर्णय लेना होगा कि वह क्या करना चाहती है। अगर सरकार कानून लाना चाहती है तो उसका क्या तरीका होगा।’
हाईकोर्ट के पूर्व जज एसआर सिंह कहते हैं कि ‘सरकार अर्जी दाखिल कर सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या एक्ट 1993 के तहत व्यापक जनहित को देखते हुए मंदिर बनाने के लिए अधिग्रहित जमीन देने की इजाजत मांगे। और अधिगृहित जमीन में मुस्लिम पक्षकारों का जो मुआवजा बनता है उन्हें देने की बात कहे। अनुच्छेद 142 में सुप्रीम कोर्ट कोई भी आदेश दे सकता है। वैसे भी कानून के तहत सरकार मंदिर या मस्जिद किसी भी जमीन को जनहित में अधिगृहित कर सकती है।’
इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील एएन त्रिपाठी का कहना है कि 42वें संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में धर्म निरपेक्ष शब्द जोड़ा गया है। इस संशोधन के बाद मंदिर के बारे में कानून लाना मुश्किल होगा। केशवानंद भारती केस में 13 जज और एसआर बोम्मई केस में 5 जजों की पीठ कह चुकी है कि संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र उसके मूल ढांचे का हिस्सा है। यह नहीं बदला जा सकता।
बगैर कानून के मौजूद है विकल्प
वकील एएन त्रिपाठी कहते हैं कि कानून लाने की जरूरत नहीं है उसके बगैर भी हल मौजूद है। ‘1994 के इस्माल फारुकी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या भूमि अधिग्रहण को संवैधानिक ठहराया था। फैसले के मुताबिक 2.77 एकड़ के विवादित क्षेत्र को छोड़ कर बाकी अधिगृहित 50 एकड़ से ज्यादा जमीन की पूर्ण मालिक केन्द्र सरकार है। फैसले के मुताबिक सरकार विवादित जमीन को छोड़कर बाकी जमीन किसी प्राधिकरण, संस्था या फिर किसी ट्रस्ट को दे सकती है। कोर्ट का यथास्थिति का आदेश विवादित जमीन पर है। सरकार रिसीवर भी विवादित जमीन की है। इस बीच विवादित जमीन पर मालिकाना हक का फैसला आने दो। फैसले के बाद भी राज्य और केन्द्र सरकार किसी भी जमीन को अधिग्रहित करने का अधिकार है।’
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