पर्यूषण पर्व क्यों मनाना चाहिए यह प्रश्न पर्यूषण पर्व मनाने वालों के भीतर और नहीं मनाने वालों के भीतर भी होंगा हीं ।
भगवान माहावीर के छह कल्याणक हुये थें । चवन कल्याणक, गर्भ संग्रहण कल्याणक, जन्म कल्याणक, अभिनिष्करण कल्याणक, केवल्य ज्ञान कल्याणक, निर्वाण कल्याणक । इनमें से पांच कल्याणक उत्तरा फाल्गुन नक्षत्र में हुये थें ।
जब उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में चंद्र और सूर्य दोनों ही कन्या राशि मे प्रवेश करते है तब एक विशिष्ट युति बनती है जिसे संधि कहते है । इस संधि के समय अगर कोई व्यक्ति अपने भीतर की संध्या में प्रविष्ट हो जाय तो माहावीर का व्यक्तित्व, माहावीर की साधना, माहावीर के ज्ञान के साथ एकाकार हों सकता है । जिस तरह हम अपने मोबाइल पर विशिष्ट बटन दबाकर पर्टिकुलर फ्रिक्वेंसी से कनेक्ट होकर आकाश मे घुम रहें कई सारे प्रोग्राम, वार्तालाप आदि लाइव देख, सुन सकते है उसी तरह कई सिध्द पुरूषों ने इस संधि से कनेक्ट होकर तीर्थंकर की दशा स्वयं में ट्रांसमीट कर देह में रहते हुवे देह से मुक्त होने का मार्ग जान लिया । इतिहास की यात्रा करने पर हमें इसके कई उदाहरण मिलतें है।
यह साधना भाद्रपद महिने मे शुक्ल पक्ष मे की जाती है । भगवान माहावीर ने स्वयं यह साधना की और अपने शिष्य और श्रावको से करवाई ।
यह साधना सीमित सूक्ष्म पलों की होती है । जिस तरह विवाह आदि प्रसंग के लिये महिना , दो महीना पुर्व से तैयारी की जाती है ठीक उसी तरह स्व को इस साधना के योग्य बनाने के लिये आठ दिनों तक तैयारी की जाती है और इन आठ दिनों को हमं पर्यूषण पर्व के रूप मे मनाते है ।
इन आठ दिनों में जैन धर्मानुयायी आरंभ समारंभ का त्याग कर ब्रम्हचर्य का पालन, उपवास, तप ( कान, नाक, आंख, जिव्हा, स्पर्श इन पंचेन्द्रियो को कंट्रोल करना ) शास्त्रो का श्रवण करना, कल्पसुत्र (अपने कल्प को जानना), अंतगड सुत्र ( अंतर मे गडे हुवे कर्मो को निकालना ) का श्रवण, अभयदान, सुपात्र दान, सामायिक (संसार मे गमन कर रहे मन को देह के भीतर लाना ), पौषद ( बाहरी संसार से संबंध स्थगित करना), प्रतिक्रमण ( स्व के कर्मो की आलोचना कर भविष्य मे पाप कर्म न करने का संकल्प ), क्षमायाचना कर कर आत्मशुध्दी करते है। धार्मिक स्थलों पर जाकर पुजा पाठ, साधर्मिक वात्सल्य, संतों के दर्शन , सेवा आदि द्वारा शरीर सामर्थ्य के अनुरुप कर्म निर्जरा करते है।
लौकिक दृष्टि से भी इस पर्व का बहुत महत्व है। इस पर्व के समय सभी जैन धर्मानुयायी धार्मिक स्थलों, उपाश्रय, मंदिर आदि जगह जाते है। इस तरह उनका आपस मे मेल-मिलाप होता है । आपसी बातचीत के दौरान मन की कुंठाएं दुर होती है। धार्मिक कार्यक्रम, भक्तिआदि के द्वारा कला को प्रोत्साहन मिलता है और जीवन आनंदमय बनता है।
पर्यूषण पर्व के अंतिम दिन संवत्सरी पर्व मनाया जाता है । सांसारिक जीवन की यात्रा करते समय हमारे द्वारा जाने अंजाने में कईयों को दुःख, कष्ट होता है और उनके द्वारा हमारा मन भी कई बार आहत होता है । संवत्सरी पर्व के दिन इन सबसे तधा भौतिक जगत के 84 लाख योनियो मे विचरन कर रहे सभी जीवों से क्षमा मांगी जाती है और उन्हें अंतकरन से क्षमा किया जाता है । कई बार हमारे भाई-बंधु , मित्र, पडोसी, रिश्तेदार आदि से हमारे बिगडे हुये संबंध हम सुधारना चाहते है पर संकोच एवं अहंकार वश हम कर नही पाते । संवत्सरी पर्व पर धार्मिक परंपरा अनुरुप ही सही हमे अपने संबंधों को एक तरह से रीचार्ज करने का अवसर मिलता है । मैत्री संबंधो मे वृद्धि होती है । भागदौड़ वाले जीवन में पर्यूषण पर्व स्पीड ब्रेकर का कार्य करता है । मन के भाव शुद्ध होते है तों प्रकृति स्वयं बिनां मांगे ही हमारी डिमांड पुरी करती है। धनधान्य की समृद्धि होती है । व्यक्ति भीतर से सुख का अनुभव करता है ।
इन दिनों धरती पर वर्षा के साथ साथ कई ऑर्गनस्, गॉड पार्टिकलस् प्रकट होते है । इस अमृत बेला मे की जाने वाली साधना, तपश्चर्या में ब्रम्हाण्ड उपस्थित दिव्य शक्तियां सहायता करती है । साधारण व्यक्ति के भीतर की आत्मा भी परमात्मा बन सकती है। मोक्ष के द्वार स्वयं के लिये खोल सकती है।
इस तरह पर्यूषण पर्व में सत्यम, शिवम, सुंदरम का निर्माण होता है । इसलिये इस पर्व को पर्वो का राजा पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व कहां जाता है।
पर्यूषण पर्व क्यों और कैसे मनाये
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