भारतीय मीडिया और भारतीयों की बात करने वाले अमेरिकी मीडिया के चुनावी कवरेज में अधिकांश जोर इसी बात पर है कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप और जो बिडेन किस तरह भारतीय मतदाताओं को अपनी तरफ लुभा रहे हैं। इस बारे में बहुत कम लिखा-बोला जा रहा है कि इस संघीय, राज्य और स्थानीय चुनावी-चक्र में दर्जन भर भारतीय अमेरिकी उम्मीदवार भी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।
अगर जो बिडेन नवंबर में मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को हरा देते हैं, तो कमला हैरिस सीनेट को अलविदा कह देंगी और अमेरिकी उप-राष्ट्रपति का पद संभालेंगी। मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि अमेरिकी सीनेट में भारतीय-अमेरिकी का प्रतिनिधित्व इस जनवरी में खत्म हो जाएगा। संभावनाएं कई हैं। मसलन, भारतीय मूल की डेमोक्रेट सारा गिडिअन के पास मेन में सीनेटर सुसान कॉलिन्स को हराने का सुनहरा मौका है। गिडिअन अभी मेन हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव की अध्यक्ष हैं और रिपब्लिकन के जिन उम्मीदवारों पर हारने का खतरा अधिक है, उनमें एक कॉलिन्स भी हैं। रियलक्लीअर पॉलिटिक्स एवरेज ऑफ पोल्स में कॉलिन्स को महज 6.5 फीसदी अंक मिले हैं।
इसी तरह, रिपब्लिकन रिक मेहता भी न्यू जर्सी में सीनेटर कोरी बुकर से मुकाबिल हैं। रिक बायोटेक उद्यमी और वकील हैं। बुकर बेशक लोकप्रिय सीनेटर हैं और पूर्व में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का दावा ठोक चुके हैं, लेकिन मेहता के पक्ष में भी मजबूत लहर है। उनकी उम्मीदवारी इस बात का संकेत है कि चुनाव प्रक्रिया में भारतवंशियों का महत्व बढ़ने लगा है।
वैसे, संभावना इस बात की भी है कि कांग्रेस (अमेरिकी संसद) में चार भारतीय-अमेरिकी फिर से चुन लिए जाएं। ये चारों हैं- एमी बेरा, रो खन्ना, प्रमिला जयपाल और राजा कृष्णमूर्ति। दो डेमोक्रेट, यानी टेक्सास में श्री कुलकर्णी और एरिजोना में हिरल टिपिरनेनी कड़े मुकाबले में हैं, और अपने-अपने राज्य से चुने जाने वाले पहले भारतीय-अमेरिकी बनने की जंग लड़ रहे हैं। पूर्व अमेरिकी राजदूत कुलकर्णीजहां टेक्सास के 22वें जिले से चुनावी मैदान में हैं, तो वहीं पेशे से डॉक्टर टिपिरनेनी एरिजोना के छठे जिले से चुनाव लड़ रही हैं। कुलकर्णी दो साल पहले रिपब्लिकन उम्मीदवार से बहुत करीबी अंतर से हार गए थे, जबकि टिपिरनेनी की कहानी भी इससे जुदा नहीं है। कुक पॉलिटिकल रिपोर्ट के मुताबिक, इन दोनों जिलों में मतदाताओं का रुझान साफ नहीं है, जिसका अर्थ है कि ये दोनों मुकाबले में हैं और यहां से किसी की भी किस्मत चमक सकती है। यदि अब भी किसी को अमेरिकी चुनावी राजनीति में भारतवंशियों के बढ़ रहे कद के सुबूत चाहिए, तो उन्हें टिपिरनेनी की दावेदारी की कहानी भी जान लेनी चाहिए। मुंबई में जन्मी इस डॉक्टर ने दावेदारी जीतने के लिए जिसे हराया, वह भी भारतीय मूल की अनीता मलिक थीं।
रही बात राज्य स्तरीय चुनावी राजनीति की, तो देश भर में आधा दर्जन से अधिक भारतवंशी फिर से चुनावी जीत हासिल करने की रेस में हैं। ये हैं- न्यूयॉर्क के सीनेटर केविन थॉमस, वाशिंगटन स्टेट की सीनेटर मनका ढींगरा, उत्तरी कैरोलिना के सीनेटर जे चौधरी, वर्मोंट सीनेटर केशा राम, वाशिंगटन स्टेट रिप्रेजेंटेटिव वंदना स्लेटर, केंटकी की रिप्रेजेंटेटिव नीमा कुलकर्णी, मिशिगन रिप्रेजेंटेटिव पद्म कुप्पा और एरिजोना रिप्रेजेंटेटिव अमिश शाह। ये सभी डेमोक्रेट्स हैं। ओहियो में रिपब्लिकन नीरज अंतानी स्टेट सीनेट की दौड़ में हैं और उनके जीतने की उम्मीद ज्यादा है। अंतानी महज 23 साल में साल 2014 में हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव के लिए चुने जा चुके हैं।
इसके अलावा, आधा दर्जन से अधिक भारतीय अमेरिकी विभिन्न स्टेट हाउस (राज्यों की सीट) में अपनी जगह बनाने के लिए चुनावी मैदान में हैं। न्यूयॉर्क स्टेट के सीनेट उम्मीदवार जेरेमी कॉनी जैसे कुछ प्रत्याशियों के पास तो पूर्व का अनुभव भी है, लेकिन कई बिल्कुल नए हैं और पहली बार उम्मीदवार बनाए गए हैं। इनमें रूपंदे मेहता (न्यू जर्सी से सीनेट उम्मीदवार), निकिल सावल (पेंसिल्वेनिया से सीनेट उम्मीदवार) और जेनिफर राजकुमार (न्यूयॉर्क स्टेट असेंबली उम्मीदवार) अत्यधिक कुशल प्रत्याशियों में गिने जा रहे हैं।
भारतवंशी सिर्फ राज्य और संघीय सदन के लिए चुनावी मैदान में नहीं हैं। वे राज्य स्तरीय एजेंसी से लेकर मेयर कार्यालय और स्कूल बोर्ड तक के विभिन्न राज्य और स्थानीय एग्जिक्यूटिव कार्यालयों में भी महत्वपूर्ण जगह पाने की जद्दोजहद में हैं। जैसे, ड्यूक यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और ओबामा के पूर्व आर्थिक सलाहकार रोनी चटर्जी उत्तरी कैरोलिना में कोषाध्यक्ष के लिए मैदान में हैं। ऐसे ही, वजीर्निया में रिपब्लिकन पुनीत अहलूवालिया ने पिछले दिनों ही लेफ्टिनेंट गवर्नर के लिए अपनी उम्मीदवारी की घोषणा की है।
स्पष्ट है, पिछले दो दशकों में भारतवंशियों ने अमेरिकी राजनीति में अपने लिए अच्छा-खासा रास्ता तैयार कर लिया है। प्रत्येक चुनाव के साथ इस समुदाय का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। प्रश्न है कि भारतीय अमेरिकियों का यूं मुखर होना कितना खास है? यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि किसी लोकतांत्रिक समाज में राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी व प्रतिनिधित्व मायने रखता है। यह नीतियों व कार्यक्रमों के निर्माण व उनको आकार देने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है। इससे यह भी तय किया जा सकता है कि नीतियों को कैसे लागू किया जाना चाहिए?
भारतीय-अमेरिकी समुदाय अमेरिका में बनने वाले नए अप्रवासी समूहों में एक है। इतना ही नहीं, यह सबसे तेजी से बढ़ते समुदायों में भी एक है। लिहाजा, राजनीतिक प्रक्रियाओं में भाग लेना और अपनी आवाज बुलंद करना इस समुदाय के लिए जरूरी है। यह समझना चाहिए कि राजनेता युद्ध व शांति जैसे राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों पर भी निर्णय लेते हैं और शिक्षा, इन्फ्रास्ट्रक्टचर के रख-रखाव और विकास के लिए संसाधन जुटाने जैसे स्थानीय स्तर के मसलों पर भी। जरूरी है कि जिस मेज पर इस बाबत चर्चा होती हो, वहां भी अपनी उपस्थिति बनाई जाए।
हालांकि, भारतवंशियों के लिए ही नहीं, अमेरिका के भविष्य के लिए भी भारतीय-अमेरिकी को नीति-निर्माण की इस मेज पर होना चाहिए। इससे अमेरिकी लोकतंत्र में मजबूती आएगी। अमेरिका को कहीं अधिक खूबसूरत संघ बनाने के लिए जरूरी है कि नस्ल, धर्म या मूल देश की परवाह किए बिना सभी को इस मेज पर जगह दी जाए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
अमेरिकी अखाड़े में अनेक भारतवंशी
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