
जिस दिन फिल्म अभिनेत्री कंगना के दफ्तर पर मुंबई मनपा चला उसी दिन वह मुंबई एअरपोर्ट पर उतरी थीं। समर्थकों और विरोधियों की भीड़ एअरपोर्ट पर इकट्ठी थी। तब एक चैनल के पत्रकार कंगना के घर के बाहर भीड़ इकट्ठा कर अपनी खबर बनाने की जुगत में भिड़े थे जिसका एबीपी के पत्रकार जितेंद्र दीक्षित ने अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए जिक्र भी किया था। मतलब यह कि जो नहीं है वह भी दिखाने की सनक आज टीवी पत्रकारिता की पसंद बन चुकी है। पिछले 6-7 सालों से एक ढर्रे पर चल रही पत्रकारिता के अधिकांश संस्थानों में सत्ता प्रतिष्ठान से सवाल करने की परंपरा लगभग गायब हो गई है। नतीजा यह है कि ठकुरसुहाती की तर्ज पर खबरें परोसने की होड़ सी मची है तब जितेंद्र दीक्षित की रिपोर्ट ध्यान खींचती है। पिछले दिनों देश की सर्वोच्च अदालत ने एक चैनल के केंद्रीय लोक सेवा आयोग में कथित तौर पर मुस्लिमों की घुसपैठ की साजिश पर केंद्रित शो पर रोक लगा दी। अदालत की टिप्पणी थी कि ऐसा लगता है कि इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य मुस्लिम समुदाय को कलंकित करने का है। हम केबल टीवी एक्ट के तहत गठित प्रोग्राम कोड के पालन को सुनिश्चित करने के लिए बाध्य हैं। एक स्थिर लोकतांत्रिक समाज की इमारत और अधिकारों और कर्तव्यों का सशर्त पालन समुदायों के सह-अस्तित्व पर आधारित है। किसी समुदाय को कलंकित करने के किसी भी प्रयास से निपटा जाना चाहिए। हमारी राय है कि हम पांच प्रतिष्ठित नागरिकों की एक समिति नियुक्त करें जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए कुछ मानकों के साथ आ सकते हैं। हम कोई ‘राजनीतिक विभाजनकारी’ (ध्यान दें राजनीतिक विभाजनकारी) प्रकृति नहीं चाहते हैं और हमें ऐसे सदस्यों की आवश्यकता है जो प्रशंसनीय कद के हों। अदालत एक टीवी चैनल के कार्यक्रम ‘यूपीएससी जिहाद’ के खिलाफ याचिका दाखिल पर सुनवाई कर रही थी। इस मामले की सुनवाई कर रही खंडपीठ में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड, जस्टिस इंदू मल्होत्रा और जस्टिस के एम जोसेफ शामिल थे।
यह एक चैनल का मामला भर नहीं है। कमोबेस एकाध अपवाद जाने दें तो हर चैनल में सत्ता प्रतिष्ठान के गुणानुवाद की होड़ लगी है। इनमें वे विषय बहस और प्राइम टाइम में प्रसारित होते हैं जिनसे दर्शक पर जाति, वर्ग, संप्रदाय, राजनीतिक दल के खिलाफ भावना उभरे। जन सरोकार के मुद्दे बहस से गायब हैं। अभी कोरोना काल में ही उत्तर प्रदेश में जरूरी स्वास्थ्य उपकरण खरीदने में घोटाले की खबरें कितनी प्रसारित हुईं और कितनी बहस का हिस्सा बनीं? एक अभिनेता की मौत पर दो महीने से ज्यादा समय से टीवी चीख रहे हैं, मगर अर्थव्यवस्था की बिगडती स्थिति, बढ़ती बेरोजगारी, किसानों की समस्यायें, शिक्षा, स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे गायब हैं। इसका मतलब यह मान लिया जाये कि अब यह सभी मुद्दे हल हो गये हैं? नहीं। इसका अर्थ यह है कि दर्शक अर्थात जनता का ध्यान इन मुद्दों पर जाये ही नहीं। यह सब क्यों और किसके इशारे पर हो रहा है, यह दिगंबर सत्य सत्ता के भोंपू बन चुके मीडिया संस्थान भी जानते हैं और जनता भी।
अब फिर अदालत की तरफ लौटें। खंडपीठ ने (चैनल से) कहा कि देश के सर्वोच्च न्यायालय के रूप में हम आपको यह कहने की अनुमति नहीं दे सकते कि मुस्लिम नागरिक सेवाओं में घुसपैठ कर रहे हैं। आप यह नहीं कह सकते कि पत्रकारों को यह करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। .सुनवाई के दौरान जस्टिस जोसेफ की यह टिप्पणी बहुत मायने रखती है कि ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ समस्या टीआरपी के बारे में है और इस तरह वह अधिक से अधिक सनसनीखेज हो जाता है तो कई चीजें अधिकार के रूप में सामने आती हैं।‘ इसका मतलब यह समझें कि छोटे पर्दे पर बैठकर हर कथित पत्रकार खुद को ही न्यायाधीश समझकर किसी भी मुद्दे पर एकतरफा धारणा तैयार करने में कोई कोताही नहीं बरतते। सुशांत सिंह की मौत के मामले पर कुछेक चैनल तो परोक्ष रूप से एक राज्य की सरकार और सरकार से जुड़े एक मंत्री की ही बलि लेने पर अमादा नजर आ रहे है तो इसके पीछे वही ठकुरसुहाती पत्रकारिता है। जिस खबरिया चैनल के एपिसोड प्रसारण को सरवोच्च अदालत ने रोका है उस चैनल पर एक धर्मविशेष के खिलाफ जाहिर तौर पर जहर उगलना आम बात है। इस प्रकरण में सबसे आश्चर्यजनक यह है कि देश के सोलिसिटर जनरल परोक्ष रूप में विवादित चैनल की पैरवी करते नजर आये।
आखिर यह ठकुरसुहाती वाली स्थिति बनती/बनी क्यों है? तीन साल पहले राजस्थान के एक प्रमुख अख़बार को तात्कालीन राज्य सरकार ने सरकारी विज्ञापन देने पर रोक लगा दी। वजह यह थी कि अख़बार लगातार राज्य सरकार की विफलताओं पर मुखरता से खबरें छापता था। एक लंबी अदालती लड़ाई के बाद उस अख़बार को सरकारी विज्ञापन मिलना शुरू हुए। दक्षिण के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ने जब सामरिक विमान राफेल खरीद पर केंद्र सरकार के झूठ की कलई उतारी उसे भी केंद्र के सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गये जो अब तक जारी है। इसके अलावा सरकार के अराजनीतिक सहयोगी प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, आयकर और अन्य एजेंसियां सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने वाले चैनलों/मीडिया संस्थानों पर जिस तरह से टूट पड़ते हैं उससे भी कमजोर आत्मशक्ति वाले ठकुरसुहाती में ही अपनी भलाई समझते हैं। राज्य में पुलिस व अन्य निकाय यही भूमिका निभाते हैं। सरकारी विज्ञापनों के इतर भी उन व्यावसायिक समूहों के विज्ञापन उन्हीं चैनलों, अखबारों को मिल रहे हैं जो केंद्रीय सत्ता प्रतिष्ठान पर काबिज दल के आर्थिक सहयोगी हैं। बाबाजी की दवाओं से लेकर नमक-तेल तक के जो विज्ञापन जारी हो रहे हैं उनको पहचानिये। इसलिए सरकारी संपत्तियों की बिक्री से लेकर व्यवस्थाओं के निजीकरण तक गजब की शांति है।
इसलिए अदालत में जब चैनल का वकील दलील देता है कि ‘मैं इसे प्रेस की स्वतंत्रता के रूप में दृढ़ता से विरोध करूंगा। कोई पूर्व प्रसारण प्रतिबंधित नहीं हो सकता है। हमारे पहले से ही चार प्रसारण हो चुके हैं इसलिए हम विषय को जानते हैं विदेशों से धन पर एक स्पष्ट लिंक है। इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ की यह टिप्पणी बहुत कुछ साफ कर देती है कि ‘हम चिंतित हैं कि जब आप कहते हैं कि विद्यार्थी जो जामियामिलिया का हिस्सा हैं, सिविल सेवाओं में घुसपैठ करने के लिए एक समूह का हिस्सा हैं तो हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। देश के सर्वोच्च न्यायालय के रूप में हम आपको यह कहने की अनुमति नहीं दे सकते कि मुस्लिम नागरिक सेवाओं में घुसपैठ कर रहे हैं। आप यह नहीं कह सकते कि पत्रकारों को यह करने की पूर्ण स्वतंत्रता है।‘
इसी पूर्ण स्वतंत्रता की बलिहारी है कि एक अभिनेत्री एक राज्य के मुखिया को गटर की भाषा में संबोधित करती है लेकिन चैनलिया मीडिया सरकार समर्थक दल की आईटी सेल की लीक पर चलते हुए झांसे की रानी को झाँसी की रानी साबित करने पर आमादा है। किसी चैनल पर उस अभिनेत्री की अमर्यादित भाषा पर विरोध या बहस की गुंजाइश नहीं समझी गई। आप सोचिये जरूर। इससे पहले कि चीखते चैनल आपके दिमाग को चेतना शून्य कर दें अपने सोचने समझने बोलने के अधिकार पर सोचिये।