रसखान जी श्रीराम के बालरुप का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि –
धूर भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनिया, कटि पीरी कछोटी॥
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी।।
इस काव्य में काग का भी वर्णन है कि श्री राम के नन्हे हाथों से एक कौआ उनकी रोटी छीन कर ले जाता है। द्वापर में भी श्रीकृष्ण के हाथों से कागा रोटी छीन कर ले जाता है। प्रभु के हाथों से रोटी ले जाने की शक्ति कोई साधारण कौआ नहीं कर सकता। प्रभु का परमभक्त ही उनकी प्रेम में सराबोर हो यह कार्य कर सकता है और प्रभु की लीला का आनंद उठता है। कागभुशुण्डि जी ही वो कागा है, जो हर कल्प में श्रीराम और श्रीकृष्ण के बाल लीलाओं का आनंद लेते है।
तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ॥
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा॥
गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डि का वर्णन मिलता है। वे अत्यंत ज्ञानवान और रामभक्त हैं। रामायण में बताया गया है कि जब रावण के पुत्र मेघनाथ और श्रीराम के मध्य युद्ध हुआ तो मेघनाथ ने रामलक्ष्मण को नागपाश से बाँध दिया था। रामचंद्र जी की रक्षा हेतु देवर्षि नारद के कहने पर पक्षीराज गरूड़ का आह्वान किया गया। गरुड़ जो कि सर्पभक्षी हैं उन्होंने नागपाश के समस्त नागों का नाश कर श्रीराम को नागपाश के बंधन से मुक्त कराया। किंतु राम जी के इस तरह नागपाश में बँध जाने पर राम के परमब्रह्म होने पर गरुड़ को सन्देह होने लगा।
बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥
प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती॥
भावार्थ: सर्पों के भक्षक गरुड़जी बंधन काटकर गए, तब उनके हृदय में बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बंधन को स्मरण करके सर्पों के शत्रु गरुड़जी बहुत प्रकार से विचार करने लगे।
गरुड़ के मन के सन्देह दूर करने के लिये देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्मा जी के पास भेजते है। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुम्हारा सन्देह भगवान शंकर दूर कर सकते हैं। भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका सन्देह मिटाने के लिये काकभुशुण्डि जी के पास भेज दिया।
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुण्डि सुसीला॥
भावार्थ:बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादि के करने से श्री रघुनाथजी नहीं मिलते। (अतएव तुम सत्संग के लिए वहाँ जाओ जहाँ) उत्तर दिशा में एक सुंदर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं॥
गरुड़ काकभुशुण्डि जी के पास रामकथा रसपान के लिए जाते हैं और काकभुशुण्डि उन्हें सप्रेम भाव से राम कथा सुनते हैं।
काकभुशुण्डि जी कहते हैं-
सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई।।
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥
भावार्थ: हे पक्षीराज गरुड़जी! श्री रघुनाथजी की प्रभुता सुनिए। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वह सुहावनी कथा कहता हूँ। हे प्रभो! मुझे जिस प्रकार मोह हुआ, वह सब कथा भी आपको सुनाता हूँ॥
सारी रामकथा सुन गरुड़ का संदेह दूर हो गया और उन्हें भी परमसत्य का ज्ञान हो गया। उनका हृदय भक्ति और प्रेम से प्रफुल्लित होगया।
सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए॥
नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना॥
भावार्थ: भुशुण्डिजी के सुंदर वचन सुनकर पक्षीराज ने हर्षित होकर अपने पंख फुला लिए। उनके नेत्रों में (प्रेमानंद के आँसुओं का) जल आ गया और मन अत्यंत हर्षित हो गया। उन्होंने श्री रघुनाथजी का प्रताप हृदय में धारण किया।
रामचरितमानस में बताया गया है कि माता पार्वती भी शिव जी से काकभुशुण्डि और उनके द्वारा गरूड़ को सुनाई गई रामकथा वाचन के बारे में पूछती है-
कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा॥
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई॥
भावार्थ: कहिए प्रभु, काकभुशुण्डि और गरुड़ इन दोनों हरिभक्तों की बातचीत किस प्रकार हुई? पार्वतीजी की सरल, सुंदर वाणी सुनकर शिवजी सुख पाकर आदर के साथ बोले।
माता पार्वती के वचन सुन शिवजी कागभुशुण्डि द्वारा सुनाई रामकथा का वर्णन करते हैं-
बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी॥
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई॥
भावार्थ: यह पवित्र कथा भगवान् के परम पद को देने वाली है। इसके सुनने से अविचल भक्ति प्राप्त होती है। हे उमा! मैंने वह सब सुंदर कथा कही जो काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी को सुनाई थी॥
शिव जी द्वारा कागभुशुण्डि के मुख से कही गयी रामकथा का इतना सुंदर वर्णन सुन माता पार्वती को काकभुशुण्डि जी के विद्वत्ता और परमज्ञान पर विश्वास नहीं हो पा रहा था कि एक कौवा कैसे इस पवित्र कथा और अद्भुत ज्ञान का धनी हो सकता है। वो कहती हैं-
बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह।
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह॥
भावार्थ: सो कौए का शरीर पाकर भी काकभुशुण्डि वैराग्य, ज्ञान और विज्ञान में दृढ़ हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है और उन्हें श्री रघुनाथजी की भक्ति भी प्राप्त है, इस बात का मुझे परम संदेह हो रहा है।
पार्वती के संदेह को दूर करने के लिए भगवान शिव बताते हैं कि उन्होंने स्वयं हंस का रूप धारण कर काकभुशुण्डि जी के मुख से रामकथा रस का श्रवण किया है।
तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास॥
भावार्थ: मैंने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ निवास किया और श्री रघुनाथजी के गुणों को आदर सहित सुनकर फिर कैलास को लौट आया॥
भगवान शिव काकभुशुण्डि के जन्म की कथा का भी वर्णन करते है जो काकभुशुण्डि ने गरुड़ को भी बताया था।
काकभुशुण्डि ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुनाकर गरुड़ के सन्देह को दूर किया और गरुड़ के सन्देह समाप्त हो जाने के पश्चात् काकभुशुण्डि जी ने गरुड़ को अपनी कथा भी बताई जो इस प्रकार है।
तेहिं कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस॥
भावार्थ: हे पक्षीराज! उस कलिकाल में मैं बहुत वर्षों तक अयोध्या में रहा। एक बार वहाँ अकाल पड़ा, तब मैं विपत्ति का मारा विदेश चला गया।
पूर्व काल में भी एक कल्प में जब कलियुग का समय चल रहा था। उसी समय काकभुशुण्डि जी का प्रथम जन्म अयोध्या पुरी में एक शूद्र के परिवार में हुआ। उस जन्म में वे भगवान शिव के भक्त थे किंतु अपने घमंड के कारण वे अन्य देवताओं की निन्दा करते थे। एक बार अयोध्या में अकाल पड़ जाने पर वे उज्जैन चले गये। वहाँ वे एक दयालु ब्राह्मण की सेवा करते हुये उन्हीं के साथ रहने लगे।
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा॥
परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक॥
वे ब्राह्मण भगवान शंकर के बहुत बड़े भक्त थे। वे कभी भी भगवान विष्णु की निन्दा नहीं करते थे। उन्होंने उस युवक (काकभुशुण्डि) को शिव जी का मन्त्र दिया। मन्त्र शक्ति पाकर युवक का अभिमान अपने शीर्ष पर चढ़ गया। अब वह अन्य ब्राम्हणों से ईर्ष्या और भगवान विष्णु से शत्रु का भाव रखने लगा। युवक के इस व्यवहार से उनके ब्राम्हण गुरु अत्यन्त दुःखी होकर उन्हें श्री राम की भक्ति का उपदेश दिया करते थे किंतु इस बात से युवक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
एक बार उस शूद्र युवक ने भगवान शंकर के मन्दिर में ही अपने ब्राम्हण गुरु अर्थात् जिस ब्राह्मण के साथ वह रहता था उसी का अपमान कर दिया। मंदिर में शिवपूजन करते शुद्र युवक ने अपने गुरु को देख उनका नमन नहीं किया ना ही उन्हें स्थान दिया। उसके इस व्यवहार से कुपित होकर भगवान शंकर ने आकाशवाणी द्वारा श्राप दिया कि-
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा।
भावार्थ: जो मूर्ख गुरु से ईर्ष्या करते हैं, वे करोड़ों युगों तक रौरव नरक में पड़े रहते हैं। फिर (वहाँ से निकलकर) वे तिर्यक् (पशु, पक्षी आदि) योनियों में शरीर धारण करते हैं और दस हजार जन्मों तक दुःख पाते रहते हैं॥
अतः उस युवक को भी गुरु का अपमान करने के लिए सर्प योनि में जन्म लेना पड़ेगा और हजारों वर्षों तक विभिन्न योनियों में जन्म लेना होगा। शुद्र युवक के गुरु अत्यंत दयालु प्रवृत्ति के थे। अतः उन्होंने शिव जी की स्तुति कर अपने शिष्य के लिये क्षमा याचना की। गुरु के द्वारा क्षमा याचना करने पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके कहा, “हे ब्राह्मण! मेरा श्राप व्यर्थ नहीं जायेगा। इस शूद्र को हजार बार भिन्न भिन्न योनियों में जन्म लेना ही पड़ेगा, किन्तु जन्म और मृत्यु से होने वाले दुःख और दर्द का प्रभाव इस पर नहीं होगा और इसने जो ज्ञान पाया है या अर्जन करेगा वह कभी समाप्त नहीं होगा। प्रत्येक जन्म का स्मरण सदैव बना रहेगा। इस जगत में कुछ भी कार्य इसके लिए दुर्लभ नहीं होगा और इसकी सर्वत्र अबाध गति होगी। मेरी कृपा से इसे भगवान श्री राम के चरणों के प्रति भक्ति भी प्राप्त होगी।
इसप्रकार उस शूद्र युवक ने विन्ध्याचल में जाकर सर्प योनि प्राप्त किया। समय पूर्ण होने पर बिना कष्ट के वह देह त्याग कर नवीन देह धारण कर लेता था। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र पहन लेता है। प्रत्येक जन्म की स्मृति उसे बनी रहती थी और विभिन्न योनियों में जन्म लेते हुए उसके हृदय में श्री रामचन्द्र जी के प्रति भक्ति भावना उत्पन्न हो गई। अंत में उसने ब्राह्मण के रूप में जन्म लिया। ज्ञानप्राप्ति के लिये वह लोमश ऋषि के शरण में गया। किंतु जब भी लोमश ऋषि उसे ज्ञान की शिक्षा देते तो वह उनसे अनेक प्रकार के तर्क-कुतर्क करता था। उसके इस व्यवहार के कारण एक दिन क्रोधवश लोमश ऋषि ने उसे चाण्डाल पक्षी (कौआ) होने का श्राप दे दिया।
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि॥
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही॥
वह तत्काल कौआ बनकर उड़ गया। क्रोधवश श्राप देने पश्चात लोमश ऋषि को अपने कार्य पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने उस कौए को वापस बुला कर सिद्ध राममन्त्र दिया तथा इच्छा मृत्यु का वरदान भी दिया।
ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह॥
कौए का शरीर पाने के पश्चात ही उन्हें अमूल्य राममन्त्र का ज्ञान प्राप्त हुआ और उनके हृदय के सारे संदेह मिट गए। जिसके कारण उन्हें कौए के शरीर से प्रेम हो गया और वे सदैव कौए के रूप में ही रहने लगे जिसके कारण वे काकभुशुण्डि के नाम से विख्यात हो गए।
काकभुशुण्डि जी कथा में अपने बारे में बताया कि-
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।
भावार्थ: मैं हठ करके भक्ति पक्ष पर अड़ा रहा। जिससे महर्षि लोमश ने मुझे श्राप दिया, परंतु उसका फल यह हुआ कि जो मुनियों को भी दुर्लभ है, वह वरदान मैंने पाया। इस भजन और भक्ति का प्रताप तो देखिए कि मुझे अमूल्य राममंत्र की प्राप्ति हो गयी। कागभुशुण्डि जी ने भक्ति की महिमा के बारे में कहा है कि-
जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं॥
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी॥
भावार्थ: जो भक्ति की ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल ज्ञान के लिए श्रम (साधन) करते हैं, वे मूर्ख घर पर खड़ी हुई कामधेनु को छोड़कर दूध के लिए मदार के पेड़ को खोजते फिरते हैं॥
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई॥
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी॥
भावार्थ: हे पक्षीराज! सुनिए, जो लोग श्री हरि की भक्ति को छोड़कर दूसरे उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और जड़ करनी वाले (अभागे) बिना ही जहाज के तैरकर महासमुद्र के पार जाना चाहते हैं॥
अर्थात- जिसप्रकार बिना जहाज के महासागर को तैरकर पार करना असंभव है वैसे ही बिना भक्ति की शक्ति के मानव का भी इस भवसागर को पार करना संभव नहीं है। अतः अपनी आंखों में बंधी मोह माया की पट्टी को उतार कर भौतिक सुखों को नहीं आत्मिक सुख की प्राप्ति करो।
विशेषः काकभुशुण्डि कथा
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