दिनेश कुमार।।
देश में कोरोना का कहर जारी है। बड़ी संख्या में लोग बीमार हो रहे हैं, लोगों की जांच हो रही है, इलाज हो रहा है। कईयों की मौत हो रही है तो कई ठीक भी हो रहे हैं। इसके चलते देश में लॉकडाउन है। लोग लगभग डेढ़ महीनों से अपने घरों में कैद हैं, कमाई का सारा जरिया बंद है। जो लोग कमाकर थोड़ा बहुत रखे हुए थे, उनका काम तो चल रहा है लेकिन जो लोग रोज कमाने खाने शहरों में थे, उनका बुरा हाल है।
सारा काम धंधा बंद हैं, जिससे वे कमाकर खाने का इंतजाम नहीं कर सकते, कई सामाजिक संगठन व सामाजिक लोग खाना मुहैया तो करवा रहे हैं लेकिन हर कोई उसके लिए लाइन नहीं लगा सकता है… दूसरी और सबसे बड़ी बात यह है कि कोई कब तक किसी को खिलाएगा…?
ट्रेनें बंद हैं तो अपने घर नहीं जा सकते। कुछ सैकड़ों किलोमीटर जाने के लिए शहरों से निकले हैं तो उन्हें पुलिस परेशान कर रही है, कुछ और भी रास्ते अपनाए जैसे ट्रेनों की पटरियों से जाने की तो औरंगाबाद में हुए एक बड़े हादसे ने वहां भी उनके रोंगटे खड़े कर दिए। हालांकि बावजूद इसके शहरों से गांवों की तरफ कामगारों का पलायन जारी है लेकिन उन्हें जिन परेशानियों, असहनीय पीड़ा का सामना करना पड़ रहा है वह भयानक है।
लेकिन कोरोना महामारी में इन मजदूरों से भी नफरत करने वालों की कमी नहीं है। तमाम लोग सोशल मीडिया पर उन्हें इसके लिए कोस रहे हैं। जबकि उनका सिर्फ इतना गुनाह है कि अब उनसे दर्द बर्दाश्त नहीं हो रहा है, जबकि देश में इस महामारी को लाने वाले वे नहीं, बल्कि वे हैं जिनके संरक्षण में सरकारें आज भी लगी हुई हैं।
इस बीच कुछ राज्य सरकारों की संवेदनहीनता ने तो अंग्रेजी शासन की याद दिला दी है। और यह समझाने की कोशिश की है कि मजदूर, कामगार कहीं भी हो, उन्हें दर्द तो मिलेगा ही।
हाल ही में उत्तर प्रदेश में भाजपा की योगी सरकार व मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार ने कई श्रम कानूनों को रद्द कर दिया है, जिसके लिए रोजगार बढ़ाने का हवाला दिया है। ऐसा लग रहा है कि प्रदेश में रोजगार ना आए इसके लिए यही मजदूर और उनके संरक्षण वाले कानून ही जिम्मेदार थे। जबकि सच्चाई कुछ है, जो इन सरकारों की नाकामी उजागर करेगी, शायद इसीलिए उन पर ध्यान नहीं दिया गया।
खैर…. सबसे पहले हम यह जानते हैं कि वे प्रावधान कौन से हैं जिन्हें निरस्त किया गया है
- काम की जगह या फैक्ट्री में गंदगी पर कार्रवाई से राहत
(मतलब फैक्ट्री में कितनी भी गंदगी हो, प्रदूषण हो, मजदूरों को वहां काम करना ही है। प्रशासन मजदूरों के शिकायत पर भी उन पर कार्रवाई नहीं कर सकेगा। - वेंटिलेशन या हवादार इलाक़े में काम करने की जगह नहीं होने पर कोई कार्रवाई नहीं होगी।
(काम की जगह चाहे जैसी भी हो, वहां कामगार अगर काम करते हुए ढंग से सांस भी नहीं ले पा रहा हैं, तब भी उसकी शिकायत नहीं कर सकेगा, उसे उन्हीं स्थितियों में काम करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।) - किसी मजदूर की अगर काम की वजह से तबीयत ख़राब होती है तो फैक्ट्री के मैनेजर को संबंधित अधिकारियों को सूचित नहीं करना होगा।
- शौचालयों की व्यवस्था नहीं होने पर भी कोई कार्रवाई नहीं होगी
- इकाइयां अपनी सुविधा के हिसाब से मज़दूरों को रख सकती हैं और निकाल सकती हैं वो भी अपनी ही शर्तों पर
बदहाली में काम करने का न तो श्रमिक अदालत संज्ञान लेगी और ना ही दूसरी अदालत में इसको चुनौती दी जा सकती है।
मध्य प्रदेश में वर्ष 1982 में भोपाल गैस त्रासदी के बाद एक श्रमिक कल्याण कोष की स्थापना की गई थी, जिसके तहत हर साल कंपनियों को प्रत्येक मज़दूर के हिसाब से 80 रुपये जमा करने अनिवार्य थे। शिवराज सरकार द्वारा अब इस व्यवस्था को भी समाप्त करने का फैसला लिया गया है।
सवाल यह उठता है कि गरीब भाईयों-बहनों, देश के मजदूरों के अधिकारों के संरक्षण करने का दावा करने वाली सरकार आखिर इन मजदूरों को वापस इनके घर भेजने में क्यों कतरा रही है और दूसरी बात, आने वाले समय में जबकि सबको पता है कि अधिकतर मजदूर अपने गृहप्रदेश में ही रहकर रोजगार की तलाश करें, तब श्रम कानून के इस तरह निरस्त करना कहां तक उचित है? क्या इसे आप मानवीयता कहेंगे? विचार कीजिएगा…! वैसे कामगार सिर्फ खेतों में काम करने वाला, बोझा ढोने वाला ही नहीं होता। फैक्ट्री, कंपनियों में नौकरी कर करने वाला व्यक्ति भी मजदूर ही कहलाता है।
राहत इंदौरी का यह शेर बड़ा मौजूं है….
‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है’