कहते हैं फिल्में समाज का आईना होती हैं साथ ही समाज को रास्ता भी दिखाती हैं। खैर, वर्तमान में ऐसी फिल्मों का बड़ा अकाल है, ऐसे में ‘झलकी’ जैसी फ़िल्म उम्मीद जगाती है। बाल मजदूरी और ग्रामीण बच्चों की दशा को बयान करती ‘झलकी’ अब तक इंटरनेशनल स्तर पर कई अवार्ड जीत चुकी है तथा चिल्ड्रेन्स डे यानि आज 14 नवंबर को पूरे देश में रिलीज भी हो चुकी है। नॉबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी के संघर्षों को केंद्रित करती यह फ़िल्म हर भारतीय को एक बार जरूर देखनी चाहिए। ब्रम्हानंद एस. सिंह एवं तन्वी जैन द्वारा निर्मित एवं निर्देशित ‘झलकी’ भारतीय सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों की कड़ी में एक और फ़िल्म है।
कहानी: ‘झलकी’ एक ग्रामीण मजदूर की बेटी के संघर्षों की कहानी है जो अपने छोटे भाई को फैक्ट्री मज़दूरी से निकालने के लिए खूब संघर्ष करती है, जिसकी प्रेरणा उसे गांव के बाइस्कोप में देखी गयी कहानी से मिलती है, जिसमें चिड़िया का दाना एक पेड़ के ठूंठ में फंस जाता है तो वह पहले बढ़ई के पास जाकर उसे काटने के लिये निवेदन करती है लेकिन बढ़ई उसे भगा देता है। फिर राजा के पास जाती है, रानी के पास जाती है, सांप के पास जाती है, लाठी के पास जाती है, आग के पास जाती है, नदी के पास जाती है लेकिन कोई भी उसकी मदद नहीं करता। अंत में वह हाथी के पास जाती है और हाथी उसकी बात सुनकर नदी को सोखने के लिए तैयार हो जाता है। जिसके बाद एक-एक करके सभी उसकी बात मानने को तैयार हो जाते हैं और अंत में बढ़ई पेड़ के ठूंठ को काटकर दाना निकलता है, जिसे लेकर वह आसमान में उड़ जाती है। झलकी (आरती झा) के माता-पिता ईंट-भट्टे के गरीब मजदूर हैं, जिनके तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। जिनमें झलकी बड़ी है, उसके बाद उसका छोटा भाई बाबू (गोरक्ष सकपाल) और एक गोद में होता है। दोनों गांव के बच्चों के साथ खेलते रहते हैं जबकि पिता दिन भर काम करता है, शाम को शराब पीता है। बच्चों को शहर में फैक्ट्री मालिकों को बेचकर घर वालों को कुछ पैसे देने वाला ठेकेदार (गोविंद नामदेव) गांव के कई बच्चों के साथ झलकी के भाई बाबू को भी शहर ले जाता है, और फैक्ट्री में बेच देता है। जिसे छुड़ाने के लिए झलकी भागती है लेकिन वह सफल नहीं हो पाती है। बावजूद इसके वह शहर पहुंच जाती है, जहां अपने भाई को छुड़ाने के लिए काफी संघर्ष करती है। काफी मुश्किल से शहर के कलेक्टर संजय भारतीय (संजय सूरी) के पास जाती है लेकिन वह इसकी बात सुनकर वहां से भगा देता है। फिर वह उनकी पत्नी सुनीता भारतीय (दिव्या दत्ता) से सब्जी खरीदते वक्त मिलती है। वह उसे घर लेकर जाती हैं। झलकी उनसे भी अपने भाई को छुड़ाने के लिए कहती है लेकिन कलेक्टर के टाल-मटोल के चलते वह भी कुछ नहीं कर पातीं। इस बीच एक साईकिल रिक्शा चालक जिससे झलकी पहले भी मिल चुकी होती है, उसके साथ जाती है वह उन फैक्ट्रियों को देखती है जहां बाल मजदूर काम कर रहे होते हैं। वह फैक्ट्री में जाती है लेकिन वहां शहर के एसडीएम पहले से बैठकर घूस ले रहा होता है। कहानी आगे बढ़त है, इसी बीच पत्रकार प्रीति व्यास (तनिष्ठा चटर्जी) मिलती है। जो मामले को एक्सपोज करने की कोशिश करती है, लेकिन नाकाम रहती है। मामला कोर्ट में जाता है लेकिन कोर्ट भी फैक्ट्री मालिक को निर्दोष करार दे देता है। इस बीच झलकी जज पर चप्पल फेंककर भागती है और घायल हो जाती है। उसके बाद फिल्म में कैलाश सत्यार्थी (बोमन इरानी) की एंट्री होती है। देश में किस तरह बाल मजदूरी के लिए बच्चों की खरीद-फरोख्त और उनका उत्पीड़न होता है, उन बच्चों को उन फैक्ट्री में कैसे रखा जाता है, यह जाल कहां-कहां तक फैला है, कौन-कौन शामिल होते हैं और जब कोई इनकी मदद करने की सोचता है तो कितना बड़ा जोखिम मोल लेता है, यह सब जानने और समझने के लिए एक बार फिल्म ‘झलकी’ जरूर देखें। निर्देशक ब्रम्हानंद सिंह एवं तन्वी जैन ने बाल मजदूरी के तमाम कड़ियों को बड़े ही बेहतरीन ढंग से परदे पर उतारा है। फिल्म लिखने वालों में ब्रम्हानंद सिंह, तन्वी जैन के अलावा कमलेश कुंती सिंह भी शामिल हैं। इन राइटर्स ने एक-एक संवाद बहुत ही सोच-समझकर लिखा है। भोजपुरी-हिन्दी में लिखे सभी डॉयलाग बेहद अच्छे बन पड़े हैं।
डायरेक्शनः फिल्म का निर्देशन ब्रह्मानंद सिंह एवं तन्वी जैन ने किया है। फिल्म के एक-एक सीन पर इन्होंने काफी मेहनत की है। लोकेशन का चुनाव बहुत ही बढ़िया है। सबसे खास बात, विषय वस्तु को जिस तरह प्रस्तुत किया है वह काबिले तारीफ है।
एक्टिंगः कैलाश सत्यार्थी के रोल में बोमन इरानी और बच्चों को ले जाने वाले ठेकेदार के रोल में गोविंद नामदेव ने हमेशा की तरह अपने-अपने किरदार को एकदम जीवंत कर दिया है। झलकी के किरदार में आरती झा और बाबू के किरदार में गोरक्ष सकपाल का किरदार दोनों बच्चों ने जितना बेहतरीन हो सकता था किया। हर एक्सप्रेशन और संवाद आदायगी कमाल की है। इन्होंने मजे हुए कलाकारों की तरह अपना किरदार निभाया है। डीएम के रोल में संजय सूरी का तो जवाब नहीं, संवाद से ज्यादा उन्होंने एक्सप्रेशन से अपने किरदार को परदे पर जिया है। डीएम की पत्नी के रोल में दिव्या दत्ता भी अच्छी लगी हैं। बाकी के किरदार भी चुने हुए लोगों को दिए गए हैं, जिन्होंने अपने-अपने किरदारों को शानदार बना दिया है।
कुल मिलाकर इतने महत्वपूर्ण विषय पर बनी यह फिल्म हर शहर, पंचायत, गांव सभी जगहों पर दिखाई जाने वाली जरूरी फिल्म है। साथ ही ऐसी फिल्म बनती रहनी चाहिए। यह फिल्म समाज की वह सच्चाई है, जो हर दिन देश को गरीबी और गुलामी की तरफ धकेल रही है।
फिल्म को सुरभि सलोनी की तरफ से साढ़े 4 स्टार।
- दिनेश कुमार ([email protected])