सुनीता नारायण।।
आज प्रश्न यह नहीं है कि क्या जलवायु परिवर्तन वाकई एक हकीकत है? सवाल यह है कि हम अब क्या कर सकते हैं? ऐसा इसलिए, क्योंकि दुनिया के कई हिस्सों में बढ़ता तापमान और बदलता मौसम तबाही मचा रहे हैं। लिहाजा तत्काल जरूरत ऊर्जा प्रणालियों में संरचनात्मक बदलाव लाने की है। संयुक्त राष्ट्र का हालिया जलवायु परिवर्तन सम्मेलन इसी कड़ी का एक और उदाहरण था, जो इसलिए बुलाया गया, ताकि मौसम में हो रहे बदलाव को रोकने के लिए तमाम सदस्य देश अधिक से अधिक प्रयास कर सकें। इस समस्या का वास्तविक समाधान आखिर कहां है? इस लिहाज से कुछ अच्छी खबरें भी आई हैं। इन पर हमें गौर करना चाहिए। मगर इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले यह भी जरूर समझ लेना चाहिए कि ‘जलवायु न्याय’ (ग्लोबल वार्मिंग को विशुद्ध पर्यावरणीय मसला मानने की बजाय इसे नैतिक और राजनीतिक मुद्दा मानना) की अवधारणा को यदि हम स्वीकार नहीं करेंगे, तो मौसम का बदलाव कहीं अधिक परेशानी पैदा करेगा और दिन-ब-दिन यह दु:साध्य होता जाएगा।
तो अच्छी खबरें क्या हैं? दरअसल, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) की ‘ग्लोबल एनर्जी द सीओटू स्टेटस रिपोर्ट-2018’ जारी की गई है, जो बताती है कि वैश्विक ऊर्जा खपत में तेजी आई है। यह वृद्धि साल 2010 के बाद की औसत विकास दर की दोगुनी है। यह इसलिए बढ़ी है, क्योंकि दुनिया भर में आर्थिक विकास मजबूत हुए हैं और जलवायु परिवर्तन के कारण अजीबोगरीब मौसमी परिघटनाएं हो रही हैं। इस कारण ऊर्जा से संबंधित कार्बन डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन का स्तर भी बढ़ गया है, क्योंकि बिजली उत्पादन क्षेत्र दो-तिहाई उत्सर्जन करता है। साल 2018 में तेल की मांग में 1.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई, और इसीलिए कोयले की मांग भी बढ़ी है; लेकिन पहले की तुलना में कोयले की मांग में वृद्धि दर धीमी है। फिर भी, कोयले पर हमारी निर्भरता सबसे ज्यादा है और कोयला आधारित बिजली संयंत्र अब भी (2018 में) कार्बन डाई-ऑक्साइड का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करते हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि औद्योगिक क्रांति के पूर्व के स्तरों की तुलना में आज जितना तापमान बढ़ा है, उसमें 0.3 फीसदी से लेकर एक फीसदी तक वृद्धि के लिए कोयला-दहन ही जिम्मेदार है।
इसमें कुछ नए रुझान दिख रहे हैं, जिन्हें यदि गति दी गई, तो निश्चय ही भविष्य के खतरे को हम टाल सकेंगे। पहला रुझान यह कि ऊर्जा-उत्पादन में कोयले की जगह अब प्राकृतिक गैस इस्तेमाल किया जाने लगा है। इसमें दुनिया भर में करीब 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, क्योंकि बिजली संयंत्रों में प्राकृतिक गैस को कोयले का विकल्प माना जाने लगा है। यह ज्यादातर अमेरिका में हुआ है, और चीन में भी, जहां वायु प्रदूषण को थामने की नीति (ब्लू स्काई इनीशिएटिव) के तहत औद्योगिक बॉयलरों और बिजली संयंत्रों में कोयले के उपयोग को कम करने पर जोर दिया गया। आईईए का अनुमान है कि कोयले की बजाय यदि प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल नहीं किया जाता, तो कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन 15 फीसदी अधिक होता। हालांकि उल्लेखनीय यह भी है कि प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल से मीथेन का उत्सर्जन ज्यादा होता है, जो खुद एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है, और आईईए ने फिलहाल इस रिपोर्ट में इसका लेखा-जोखा तैयार नहीं किया है।
दूसरा रुझान यह है कि सौर, पवन, पानी और जैविक उत्पादों से पैदा होने वाली अक्षय ऊर्जा की ओर दुनिया बढ़ने लगी है। आईईए के मुताबिक, अक्षय ऊर्जा आधारित बिजली उत्पादन में सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2010 के बाद की सालाना विकास दर से यह एक अंक ज्यादा है। अक्षय ऊर्जा में हुई कुल बढ़ोतरी में 40 फीसदी हिस्सेदारी चीन की है, जबकि यूरोप की लगभग 25 फीसदी। दिलचस्प है कि अमेरिका और भारत भी अक्षय ऊर्जा में 13 फीसदी की बढ़ोतरी के साझीदार हैं। रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में कोयले के बाद अक्षय ऊर्जा से ही सबसे ज्यादा बिजली (करीब एक चौथाई) पैदा की गई। जर्मनी और ब्रिटेन में भी बिजली जरूरतों का 35 फीसदी उत्पादन अक्षय ऊर्जा से हो रहा है। कुल मिलाकर कहें, तो प्राकृतिक गैस की तरफ यदि हम उन्मुख न हुए होते, परमाणु व अक्षय ऊर्जा में वृद्धि न हुई होती, तो पिछले साल कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन 50 फीसदी अधिक होता। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।
हालांकि यह पर्याप्त नहीं है। ऊर्जा प्रणालियों में यह संरचनात्मक बदलाव अधिक से अधिक संभव बनाया जाना चाहिए, क्योंकि दुनिया के कुछ खास हिस्सों को ज्यादा ऊर्जा की जरूरत है। यह एक बड़ी चुनौती है और इस मामले में हम पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं। जैसे कि अमेरिका को अपने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने की सख्त जरूरत है। वह पहले से इन गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। करीब-करीब एक चौथाई उत्सर्जन वही करता है। उसे इसमें कमी लानी होगी। मगर 2018 में, कार्बन डाई-ऑक्साइड के उत्सर्जन में वहां 3.7 फीसदी की वृद्धि देखी गई है। यह स्थिति तब है, जब कोयले की बजाय प्राकृतिक गैस की ओर वह उन्मुख हुआ है। इसका अर्थ यह है कि उसने अपने उत्सर्जन को इस हद तक बढ़ा दिया कि ऊर्जा प्रणालियों में संरचनात्मक बदलाव का फायदा उसे नहीं मिल सका। ‘ग्लोबल एनर्जी द सीओटू स्टेटस रिपोर्ट’ में मीथेन उत्सर्जन को शामिल नहीं किया गया है, अन्यथा यह तस्वीर और स्याह होती। इसे कतई सुखद स्थिति नहीं कह सकते। इसी तरह, अमेरिका में तेल की खपत बढ़ गई है, जिसका मूल रूप से इस्तेमाल सड़क-परिवहन में होता है। चीन और भारत से भी यदि तुलना करें, तो यह वृद्धि काफी अधिक है। जबकि अमेरिका में निजी गाड़ियों का स्वामित्व और उपयोग पहले से ही बहुत ज्यादा है। ऐसे में, सवाल यही है कि तमाम देश आखिर किस तरह उत्सर्जन कम करेंगे? अल्पविकसित व विकासशील देशों और गरीबों के विकास के अधिकार के साथ इसका किस तरह से तालमेल बिठाया जाएगा? क्या यह संभव हो सकेगा; अगर हां, तो कैसे? ये चंद ऐसे सवाल हैं, जिन पर हमें चर्चा करनी चाहिए। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जो हो रहा है, उसका सच यही है।
Thanks:https:www.livehindustan.com