-मुनि जिनेशकुमार-
कुछ व्यक्ति ज्ञान सम्पन्न होते है लेकिन चारित्र सम्पन्न नही | वही कुछ व्यक्ति चारित्र संपन्न तो होते है पर ज्ञान सम्पन्न नही होते कुछ व्यक्ति न तो ज्ञान से सम्पन्न होते है और न ही चारित्र से। आचार्य श्री महाश्रमण ऐसे व्यक्तित्व का नाम है जो ज्ञान से भी सम्पन्न है और चारित्र से भी सम्पन्न है।
श्रमण संस्कृति के अनमोल रत्न आचार्य श्री महाश्रमण प्रकृति से सहज, सरल, विनम्र और निस्पृह है। उनकी अप्रमत्तता, श्रमशीलता, साधना, समय प्रबंधन बेजोड़ है। प्रसन्न मुख मुद्रा के स्वामी आचार्य श्री महाश्रमण का आभामंडल पवित्र व निर्मल है।
वि.सं. 2019 वैशाख शुक्ला नवमी के दिन राजस्थान के चूरू जिले के सरदार शहर में उनका जन्म हुआ। झुमरमलजी एवम नेमादेवी दुग्गड़ के सुपुत्र मोहन जाति से ओसवाल थे। आठ भाइयो मैं सातवे भाई मोहन जब सात वर्ष के हुए तब उनके सिर से पिता का साया उठ गया।
मात्र 12 वर्ष की उम्र में वि.सं. 2031 वैशाख शुक्ला चतुर्दशी कर दिन आचार्य श्री तुलसी की आज्ञा से मंत्री मुनिश्री सुमेरमलजी स्वामी, लाडनूं के कर कमलों से सरदारशहर मे दीक्षित हुए। वे मोहन से मुनि मुदित बने। साध्वाचार मैं सजग रहते हुए आगम, हिंदी, संस्कृत, प्राकृत व अंग्रेजी भाषा का तलस्पर्शी अध्ययन किया। उनकी योग्यता का अंकन करते हुए आचार्य श्री तुलसी ने उन्हें महाश्रमण के अलंकरण से अलंकृत किया। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने वि.सं. 2054 भाद्रव शुक्ला द्वादशी के दिन गंगाशहर में उन्हें युवाचार्य के पद पर मनोनीत किया और वि.सं. 2067 वैशाख शुक्ल दशमी के दिन सरदारशहर मे वे आचार्य बने। तत्पश्चात उन्होंने आचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा घोषित अहिंसा यात्रा को पूर्ण किया।
9 नवंबर 2014 को दिल्ली के लाल किले से पुनः अहिंसा यात्रा प्रारंभ की जो भारत, नेपाल व भूटान आदि प्रदेशो में अहिंसा का संदेश दे रही है।
आचार्यश्री महाश्रमण ने राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, बिहार,आसाम, बंगाल,मध्यप्रदेश, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी, नेपाल, भूटान आदि क्षेत्रों की 45 हजार किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा की। यात्रा के साथ आगम संपादन का कार्य, दैनिक प्रवचन, क्षेत्रो की सार संभाल, साधु -साध्वियों के पठन पाठन का क्रम नियमित रूप से चल रहा है। आचार्य श्री प्रवचन के माध्यम से भव्य आत्माओं को कषाय मुक्त, नशा मुक्त जीवन जीने की प्रेरणा देते है। जनता नैतिक, संयमी, ईमानदारी युक्त, जीवन की ओर अग्रसर रहे, यह सलक्ष्य प्रयत्न करते है। फलस्वरूप हजारो लोग नशामुक्ति के लिये संकल्पबद्ध हुए है। यात्रा के दौरान आध्यात्मिक जागृति व उत्थान के कार्य भी अनवरतरूप से जारी है।
स्थिरयोगी आचार्यश्री महाश्रमण समाजसुधरक भी है। समाज मे व्याप्त विकृतियों, कुरुढियो को प्रश्रय न देने का आहवान करते है। जसोल चातुर्मास में उस महापुरुष की प्रेरणा से सैकड़ो भाई बहनो ने मृत्युभोज व तपस्या के उपलक्ष्य मे भोज न करने का संकल्प लिया।
आचार्य श्री महाश्रमण अनुत्तर साधक है। अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित रखते हुए नित्य प्रायः दो-तीन घण्टे जप, ध्यान, स्वाध्याय, आसन आदि के लिए लगाते है।
आचार्य श्री महाश्रमण जहा कुशल प्रवचनकार है वही कुशल प्रशासक भी है। साहित्यकार है संगीतकार भी है। वे आचार्य श्री तुलसी एवम आचार्य श्री महाप्रज्ञ के अवदानों को गति दे रहे है। भगवान महावीर के संदेश को जन-जन मे प्रचारित कर रहे है। उनकी वाणी मे जहा माधुर्य व गांभीर्य है वही सहजता, सरलता और सरसता भी है। सिद्धांतवादी आचार्य श्री महाश्रमण को सिद्धान्तों से समझौता कतई पसंद नही है। उनकी परंपरा के प्रति, संघ के प्रति अटूट आस्था है। वे रत्नाधिक मुनियों का पूर्ण सम्मान करते है और छोटे संतो को पूर्ण स्नेह देते है।
जैसे हिन्दुओ मैं गंगा, मुसलमानो मे मक्का मदीना, ईसाईयो मे वेटिकन सिटी का, यहूदियों मे येरुशलम का महत्व है वैसे ही तेरापंथ धर्मसंघ मे आचार्य श्री महाश्रमण का महत्त्व है। आचार्यश्री महाश्रमण दीर्घायु हो, चिरायु हो यही उनके जन्मोत्सव एवं पटोत्सव पर मंगलकामना करते है।
श्रमण संस्कृति के अनमोल रत्न : आचार्य श्री महाश्रमण
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