ज्ञान का है परम महत्त्व : अध्यात्मवेत्ता आचार्यश्री महाश्रमण

– वापी में महातपस्वी ने बहाई ज्ञानगंगा, श्रद्धालुओं ने लगाए गोते  
– आचार्यश्री के दर्शन और आशीष को प्राप्त कर नगरवासी हुए धन्य  
– स्वागत में श्रद्धालुओं ने दी अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति  
22.05.2023, सोमवार, वापी, वलसाड (गुजरात)। दो दशक बाद वापी की धरा पर दो दिवसीय मंगल प्रवास को पहुंचे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने वापीवासियों को कृपा बरसाते हुए अपने प्रवास के दूसरे दिन अर्थात् सोमवार को प्रातःकाल नगर भ्रमण को पधारे। आचार्यश्री के नगर भ्रमण के दौरान वापीवासी सैंकड़ों-सैंकड़ों श्रद्धालुओं को अपने-अपने घरों, सोसायटीज और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के निकट दर्शन करने और श्रीमुख से मंगल आशीर्वाद प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। आचार्यश्री की इस कृपा से वापीवासी गदगद थे। जन-जन पर आशीषवृष्टि करते हुए आचार्यश्री लगभग ढाई घंटे के भ्रमण के उपरान्त श्री कृष्णा इण्टरनेशनल स्कूल में पधार गए।
दमनगंगा सहित अन्य कई नदियों के मुहाने और अरब सागर से कुछ दूर इस औद्योगिक नगर में युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी का मंगल पदार्पण आध्यात्मिकता के रंग नजर आ रहे थे। ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित वापीवासियों को आचार्यश्री ने मंगल पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि हमारी दुनिया में ज्ञान का परम महत्त्व होता है। ज्ञान के दो प्रकार बताए गए हैं-एक ज्ञान जो बाहरी रूप में ग्रहण किया जाता है। जैसे अपने इन्द्रियों, कान से सुनकर, आंख देखकर अथवा पढ़कर, स्पर्श कर, सूंघकर। इस ज्ञान को कुण्ड के पानी के समान मान लिया जाए कि इसमें आदमी द्वारा जितना ज्ञान एकत्रित किया जाएगा, उतना ही ज्ञान उसे प्राप्त हो सकता है। एक ज्ञान होता है आंतरिक ज्ञान। उसे ‘आत्मसमुत्थ ज्ञान’ भी कहा जाता है। यह ज्ञान आत्मा की स्फुरणा से प्राप्त होता है। इसे अतिन्द्रिय ज्ञान भी कहा जाता है। यह ज्ञान विशेष होता है। यह ज्ञान कुंए के पानी के समान होता है, कितना भी निकालो, यह समाप्त नहीं होता। इस ज्ञान के माध्यम से आदमी को स्वयं सत्य को खोजने का प्रयास होना चाहिए।
किसी के द्वारा बताए गए धर्म, ग्रन्थ, साहित्य आदि के ज्ञान को अपने आंतरिक ज्ञान और अपनी बुद्धि से परीक्षण करने के बाद स्वीकार करने का प्रयास करना चाहिए। सत्य की खोज के लिए आदमी के भीतर अनाग्रह की चेतना पुष्ट होनी चाहिए। अपने मत अथवा पंथ के प्रति अनाग्रह का भाव न हो तो सत्य की खोज में सुविधा हो सकती है।
आचार्यश्री ने आगे प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि आदमी को संसार के सभी प्राणियों के प्रति मंगल मैत्री का भाव रखने का प्रयास करना चाहिए। किसी से कोई वैर, विरोध न हो, सबके प्रति मंगल मैत्री का भाव हो। अहिंसा और मैत्री की भावना से आत्मा भी निर्मल रह सकती है। वर्तमान जीवन के साथ-साथ सुगति की प्राप्ति भी संभव हो सकती है। इस प्रकार आदमी को सच्चाई के मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए, जिससे जीवन उन्नत बन सके।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने जनता को उद्बोधित किया। वापी शहरवासियों ने भी अपने आराध्य के प्रति अपनी आस्थासिक्त भावनाओं को अभिव्यक्ति दी। इस क्रम में स्थानीय तेरापंथ युवक परिषद के अध्यक्ष श्री विजय बोथरा, अणुव्रत समिति के अध्यक्ष श्री विमल झाबक, तेरापंथ महिला मण्डल की अध्यक्ष श्रीमती करुणा बागरेचा, तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम की अध्यक्ष श्रीमती वीणा बोथरा, श्री नन्दलाल मेहता, श्रीमती मीनाक्षी बच्छावत, उपाध्यक्ष श्री राजेश दूगड़, श्री संजय भण्डारी व बालिका मैत्री बोथरा ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी। बालिका आद्या बच्छावत, श्री दर्शन भण्डारी, श्रीमती मुस्कान बोथरा, श्रीमती प्रेक्षा कच्छारा व श्री नथमल भोगड़ ने अपने-अपने गीतों का संगान किया। तेरापंथ कन्या मण्डल ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति देते हुए 14 नियमों का आचार्यश्री से त्याग ग्रहण किया। ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने भी अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी।

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