स्मृति पटनायक।।
ईस्टर बम धमाकों के बाद से श्रीलंका स्थिर नहीं हो पाया है। बौद्ध भिक्षु अथुरालिए रतना के आमरण अनशन से स्थिति तेजी से बदल चुकी है। रतना दो प्रांतीय मुस्लिम गवर्नरों और एक मंत्री के इस्तीफे की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर बैठे थे। उनका आरोप है कि इन मंत्रियों का आत्मघाती हमलावरों से संबंध रहा है। हालांकि वह इससे जुड़ा कोई सुबूत सार्वजनिक नहीं कर पाए थे। जवाबी प्रतिक्रिया में अपने सहयोगी मंत्री का समर्थन करते हुए श्रीलंका के सभी नौ मुस्लिम मंत्रियों और दो प्रांतीय गवर्नरों ने इस्तीफा दे दिया है।
श्रीलंकाई समाज में इस समय दो तरह के नैरेटिव हैं, जिनके आधार पर वहां आक्रामकता दिख रही है। पहला, यह धारणा बन गई है कि बम धमाकों को इस्लामिक स्टेट (आईएस) की विचारधारा से प्रेरित मुसलमानों ने अंजाम दिया है। आशंका है कि सीरिया गए श्रीलंकाई नागरिकों में से 50-60 के करीब वापस लौट चुके हैं, और उन्हीं में से कुछ ने यह खूनी खेल खेला। कहा यह भी जा रहा है कि देश में बेशक आईएस का कोई संगठनात्मक ढांचा न हो, मगर ऑनलाइन माध्यमों से यह संगठन यहां प्रवेश कर चुका है और उसने बड़ी संख्या में मुसलमानों को प्रभावित किया है।
दूसरा नैरेटिव बौद्धों और मुसलमानों के आपसी टकराव से जुड़ा है। यह तनाव मई, 2009 में आतंकी संगठन लिबरेशन टाइगर ऑफ तमिल ईलम यानी लिट्टे के खात्मे के बाद पैदा हुआ है। दरअसल, तमिल ईलम पर जीत के बाद सिंहल बहुसंख्यकवाद की अवधारणा का जन्म हुआ और माना जाने लगा कि श्रीलंका पर पहला अधिकार सिंहलियों का है। इस सोच को महिंदा राजपक्षे ने भी खूब आगे बढ़ाया, जिसका उन्हें भरपूर लाभ मिला। बतौर राष्ट्रपति चूंकि उन्हीं के कार्यकाल में लिट्टे का अंत हुआ, इसलिए उनकी छवि एक ऐसे मजबूत नेता की बनी, जो सिंहलियों की रक्षा कर सकता है। उनके भाई गोटाभाय राजपक्षे भी बोडू बल सेना (बीबीएस, यानी बौद्धों का बल) के साथ मजबूती से खड़े रहते हैं, जिसके निशाने पर मुसलमान रहे हैं। पिछले दिनों राष्ट्रपति ने अदालत की अवमानना के मामले में सजायाफ्ता बौद्ध भिक्षु गलगोडा अथेत ज्ञानसारा को भी माफी दे दी, जिनके विरुद्ध मुसलमानों पर कई हमले करने के आरोप हैं।
महिंदा राजपक्षे ने एक और दलील गढ़ी। असल में, लिट्टे के अंत के बाद जब उनकी सरकार पर भारत सहित तमाम प्रमुख पश्चिमी देशों ने दबाव बनाया कि गृह युद्ध के दौरान आम तमिल नागरिकों पर हुई दमनात्मक कार्रवाई की जिम्मेदारी तय की जाए, तो राजपक्षे विशेषकर सिंहल बौद्धों को यह समझाने में सफल रहे कि श्रीलंका को आतंकियों से मुक्त कराने की सजा उन्हें मिल रही है। उन्होंने पश्चिमी देशों के खिलाफ माहौल तैयार किया, जो अब अल्पसंख्यकों के खिलाफ सक्रिय हो गया है।
21 अप्रैल के बम धमाकों को कुछ दिनों पहले हुई दो अन्य घटनाओं से जोड़कर भी देखा जा रहा है। पहली घटना है, कैंडी शहर के दंगे। आरोप है कि वहां जब कभी बौद्ध दंगाई अल्पसंख्यक बस्तियों की ओर बढ़ते, तो श्रीलंकाई पुलिस तमाशबीन बनी रहती। उसने अल्पसंख्यकों को बचाने के लिए कुछ खास नहीं किया। दूसरी घटना है, बम धमाकों के आरोपी नेशनल तौहीद जमात का बौद्ध प्रतीकों को तोड़ना। इसके बाद देश के उत्तरी हिस्से पुट्टालम के फॉर्म हाउस से विस्फोटक बरामद हुए थे। फिर भी, पुलिस आसन्न हमले को रोकने में सुस्त बनी रही। उसका यह रवैया आज भी कायम है।
श्रीलंका का समाज एक अद्वितीय विशेषता को जीता है। वहां एक ही परिवार में बौद्ध और ईसाई, दोनों धर्मों को मानने वाले लोग देखे जा सकते हैं। यही वजह है कि ‘संडे ईस्टर’ के धमाकों को बौद्धों पर हुए हमले के रूप में भी देखा जा रहा है।
इन सबके अलावा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच के तनाव ने भी स्थिति खराब की है। मैत्रीपाला सिरीसेना दूसरी बार राष्ट्रपति बनना चाहते हैं, लेकिन इस पद पर प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की नजर है। श्रीलंका में प्रधानमंत्री से कहीं ज्यादा ताकत राष्ट्रपति के पास होती है। सिरिसेना इसी भरोसे के साथ राष्ट्रपति बनाए गए थे कि एक कार्यकाल के बाद वह पद खाली कर देंगे। लेकिन अब लगता है कि वह अपनी सोच बदल चुके हैं। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की इसी तनातनी ने सुरक्षा एजेंसियों के काम में रुकावट पैदा की है। सिरिसेना ने पुलिस प्रमुख जयसुंदर को हमले की अग्रिम सूचना पर उचित कार्रवाई न करने के कारण सेवा से बर्खास्त कर दिया है, लेकिन जयसुंदर की मानें, तो उन्हें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच रस्साकशी शुरू होने के बाद से राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की बैठकों में शामिल होने से रोक दिया गया था।
श्रीलंका में साल के अंत या जनवरी के शुरुआती हफ्तों में चुनाव होने वाले हैं। इस बार यह चुनाव निश्चित ही राष्ट्रवाद के मुद्दे पर लड़ा जाएगा। पहले तमिलों, और अब मुसलमानों का भय दिखाकर राजपक्षे के पक्ष में माहौल बनाने की तैयारी हो रही है। हालांकि कुछ विश्लेषक इस घटनाक्रम को अमेरिकी दखल का नतीजा भी मान रहे हैं। उनका मानना है कि चूंकि श्रीलंका में बीजिंग की मौजूदगी बढ़ी है, इसलिए वाशिंगटन यहां अपनी उपस्थिति बढ़ाना चाहता है।
बहरहाल, तमिलों के खिलाफ जैसा माहौल 2009 में था, कुछ-कुछ वैसा ही माहौल अब अन्य अल्पसंख्यकों (खासकर मुसलमानों) के खिलाफ बनाया जा रहा है। यही वजह है कि मुसलमान प्रतिनिधि कहने लगे हैं कि जब तक उनके साथ आतंकी सरीखा व्यवहार बंद नहीं किया जाएगा, उनके कारोबारी हितों या मस्जिदों पर हमले नहीं रुकेंगे, बौद्ध दंगाइयों को मिलने वाले पुलिसिया संरक्षण बंद नहीं होंगे और उनके प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाई जाएगी, तब तक इस तनातनी का हल संभव नहीं है। भारत द्वारा ईस्टर हमले से जुड़ी अग्रिम खुफिया जानकारी मुहैया कराने के बावजूद श्रीलंका सरकार और सुरक्षा एजेंसियां हमलों को नहीं रोक सकीं, क्योंकि ये सूचनाएं संबंधित अधिकारियों तक नहीं पहुंच सकी थीं। इससे पता चलता है कि श्रीलंका का सत्ता-प्रतिष्ठान तमिल अतिवाद के न उभरने को लेकर जितना तत्पर है, उतना संजीदा कट्टरता रोकने को लेकर नहीं दिख रहा।
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