भारतीय संस्कृति का लोहा वर्षों से पूरा विश्व मानता रहा है लेकिन फिर भी ऐसी कई बातें हैं जिनके लिए हम भारतीयों को अन्धविश्वासी या गंवार होने का तमगा मिलता रहा है. इस संदर्भ में ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री जी कहते हैं, “यह वाकई अजीब बात है कि आज जब एक वायरस हमारे सिर पर हमारी मौत बनकर बैठ गया है, तब यह बात पूरे विश्व को समझ आई है कि इस वायरस से बचना है तो हमें क्वारेंटाईन होना पड़ेगा.” क्वारेंटाईन का महत्व बताते हुए ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री जी ने आगे कहा, “क्वारेंटाईन का अर्थ हमारी संस्कृति में ‘‘सूतक’’ से है. यह वही ‘सूतक’ है जिसका भारतीय संस्कृति में आदिकाल से पालन किया जा रहा है. हालांकि कुछ विदेशियों ने हमारी इस संकृति का सदैव मजाक बनाया है. लेकिन आज कोरोना के भय ने उन्हें यह बात अच्छी तरह समझा दी है कि मृतक के शव में भी दूषित जीवाणु होते हैं इसलिए हम शवों को जलाकर नहाते हैं. हाथ मिलाने से भी जीवाणुओं का आदान प्रदान होता है इसलिए हम दूर से ही नमस्कार कर किसी का अभिवादन करते हैं.
बाकी बातें छोड़ दी जाएँ तब भी सिर्फ ‘सूतक’ के जरिए ही इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि हमारी सनातन संस्कृति सदियों से कितनी वैज्ञानिक रही है. यही वजह है कि विषाणुओं और जीवाणुओं से बचने के लिए हम आदिकाल से ही स्वयं को क्वारेंटाईन करते आए हैं.”
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री जी ने इसे कई उदाहरण के ज़रिए हमें बताया है. आइए इन पर गौर करें.
(1) हमारे यहॉ बच्चे का जन्म होता है तो जन्म ‘सूतक’ लागू करके माँ-बेटे को अलग कमरे में महिने भर तक अलग रखते हैं, मतलब क्वारेंटाईन करते हैं.
(2) हमारे यहाँ कोई मृत्यु होने पर परिवार, मृत्यु सूतक (तेरहवीं) में रहता है. लगभग 12 दिन तक ना सिर्फ सबसे अलग रहते हैं बल्कि मंदिर में पूजा-पाठ भी नहीं करते. सूतक के घरों का पानी भी नहीं पिया जाता.
(3) हमारे यहाँ शव का दाह संस्कार किया जाता है और जो लोग अंतिमयात्रा में जाते हैं उन पर भी मृत्यु सूतक लागू हो जाता है. यही वजह है कि अपने घर जाने से पहले ही वह लोग बाहर कहीं नहा लेते हैं, तत्पश्चात घर में प्रवेश करते हैं.
(4) हम मल विसर्जन करने के बाद शुद्धि के लिए पानी का प्रयोग कर साबुन से हाथ धोते हैं, और तब तक क्वारेंटाईन रहते हैं जब तक कि नहा ना लें. यही वजह है कि हमारे ग्रामीण समाज में वायव्य कोण में वास्तु के अनुसार आज भी टॉयलेट/ बाथरूम घरों से दूर रखा जाता है. अब महानगरों में जगह की कमी के कारण भले बाथरूम घर में हो लेकिन कोशिश यही होती है कि हम मलविसर्जन के बाद तुरंत नहा लें.
(5) जिस व्यक्ति की मृत्यु होती है उसके उपयोग किये सारे रजाई-गद्दे तथा चादर तक ‘‘सूतक’’ मानकर बाहर फेंक देते हैं अर्थात नष्ट कर देते हैं.
(6) हमारे यहाँ सदियों से होम, हवन कर वातावरण शुद्ध करने की परम्परा रही है जिसे विश्व ने भी समझा है. वातावरण शुद्धि के लिये घी, कर्पूर, आम की लकड़ी, धूप, चंदन और अन्य हवन सामग्री का उपयोग करते आए हैं. सिर्फ यही नहीं हमने आरती को कपूर से जोड़कर हर दिन कपूर जलाने का महत्व भी लोगों को समझाया ताकि घर के जीवाणु मर सकें।
(7) हमने वातावरण को शुद्ध करने के लिये मंदिरों में शंखनाद किये. साथ ही मंदिरों में बड़ी-बड़ी घंटियॉ लगाई जिनकी ध्वनि आवर्तन से अनंत सूक्ष्म जीव स्वयं नष्ट हो जाते हैं।
(8) हमने ना सिर्फ भोजन की शुद्धता को भी महत्व दिया बल्कि भोजन करने के पहले और बाद में भी अच्छी तरह से हाथ धोने की परम्परा कायम की.
(9) चप्पल जूता खोलकर बाहर निकालकर ही हम घर में पैर धोकर अंदर जाते हैं.
(10) हम जिवाणुमुक्त रहने के लिए सुबह सुबह पानी में हल्दी या नीम डालकर नहाते हैं.
(11) हम शुद्धता के लिए अमावस्या पर नदियों में स्नान करते हैं, जिससे कोई सूतक हो तो वह भी दूर हो जाए.
(12) बीमार व्यक्तियों को जल्दी स्वस्थ करने के लिए उन्हें नीम से नहलाया जाता है.
(13) हमारे यहाँ चन्द्र और सूर्य ग्रहण को भी सूतक माना जाता रहा है, यही वजह है कि हम ग्रहण में भोजन नहीं करते. यह हमारे लिए गर्व की बात है कि अब इसे विश्व के वैज्ञानिक भी सही प्रमाणित कर चुके हैं.
(14) हमने उत्सव भी मनाया तो मंदिरों में जाकर, सुन्दरकाण्ड का पाठ करके, धूप-दीप हवन से वातावरण को शुद्ध करके.
(15) हमने होली जलाई कपूर, पान का पत्ता, लोंग, गोबर के उपले और हविष्य सामग्री सब कुछ सिर्फ वातावरण को शुद्ध करने के लिये।
(16) हम नववर्ष व नवरात्री मनाते हैं, 9-9 दिन घरों-घर आहूतियॉ दी जाती हैं, वो भी सिर्फ और सिर्फ वातावरण को शुद्ध करने के लिये।
(17) सच पूछिए तो हमारे प्रत्येक पर्व तथा त्यौहार घर को जीवाणुओं से क्वारेंटाईन रखने की एक ख़ास वजह देते हैं क्योंकि हमारे यहाँ प्रत्येक पर्व त्यौहार में साफ़ सफाई को खासा महत्त्व दिया गया है.
(18) हम ही हैं जो दीपावली पर घर के कोने-कोने को साफ करते हैं, चूना पोतकर जीवाणुओं को नष्ट करते हैं, पूरे सलीके से घर को विषाणु मुक्त घर बनाते हैं. अब यह बात और है कि अब प्लास्टिक पेंट के चलन में कई सालों तक पुताई भी नहीं होती.
तो इन सब बातों का सीधा सीधा अर्थ यही है कि हमने अतिसूक्ष्म जीव विज्ञान को ना सिर्फ समझा है बल्कि उसे आत्मसात भी किया है. सिर्फ यही नहीं हम उन जीवाणुओं को भी महत्व देते हैं जो हमारे शरीर पर सूक्ष्म प्रभाव डालते हैं। आज हमें गर्व होना चाहिए कि हम ऐसी देव संस्कृति में जन्मे हैं, जहाँ ‘सूतक’ अर्थात क्वारेंटाईन का काफी महत्व है और यही हमारी जीवन शैली है. आज हमें गर्व होना चाहिए कि पूरा विश्व हमारी संस्कृति को सम्मान से देख रहे हैं, वो अभिवादन के लिये हाथ जोड़ रहे हैं, वो शव जला रहे हैं और वो सूतक अर्थात क्वारेंटाईन को भी मानते हुए हमारा अनुसरण कर रहे हैं.
अत: हम सभी पाठको से निवेदन करते है आप भी भारतीय संस्कृति के महत्व को समझे उनकी बारीकियों के महत्व को और अच्छे से समझने की कोशिश करें, क्योंकि सनातन संस्कृति ही जीवन पद्धति है.
भारतीय संस्कृति की पुरानी सभ्यता है क्वारेंटाईन
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