आदित्य तिक्कू।।
भूख के रथ पर रोटी की तलाश में सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देने वाले व्यक्ति को मजदूर कहा जाता है। जो एक रोटी की आस में घर से मीलों दूर १६-१८ घंटे काम करता है, अन्तः कामचोर जैसे शब्दों से पुकारा जाता है और भूखा सो जाता है। यही प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है जबतक उसकी आस और सांस घुटने न टेक दे। इस नीरस व्याख्या का उद्देश्य मात्र आपको अवगत करना था की वास्तविकता में मजदूर है कौन।
हमारे और आप के लिए पेट की आग को पानी से बुझाता वा दिन – रात हमारे सपनों को रूप देता वह शख्स एक दम से हम पर व समाज पर बोझ बन जाता है। क्योंकि हमारे लिये महीनों का राशन भरने वाले के घर में एक वक्त का दाना नहीं है। इसलिए उसे घर जाना था की भूख से दम निकलना तो निश्चित है तो कम से कम अपनी जन्मभूमि पर ही निकले। अफ़सोस कर्मभूमि में किसी ने रोका नहीं बस भीख दी ज्ञान की या रोटी की। अब सब जा रहे हैं, सब खुश हैं।
हर बात की तरह यह भी समझ नहीं आ रहा कि जब कारोबारी गतिविधियां फिर से शुरू करने की तैयारी की जा रही है तब विभिन्न राज्यों से बड़ी संख्या में मजदूर अपने गांव लौट रहे हैं। मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है इसलिए उन्हें ट्रेनों से ले जाया जा रहा है। कहना कठिन है कि विभिन्न शहरों में फंसे मजदूरों की संख्या कितनी होगी, लेकिन वह लाखों में तो होगी ही। हैरानी नहीं कि यह संख्या करोड़ का आंकड़ा छू ले। सवाल है कि यदि हमारे औद्योगिक शहर मजदूरों से खाली हो गए तो फिर आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियों का थमा पहिया नए सिरे से गति कैसे पकड़ेगा?
किसी भी मजदूर को जबरन नहीं रोका जा सकता खासकर तब जब काम नहीं हो वरना सालों से उन्हें रोका भी जा रहा था और काम भी कराया जा रहा था परन्तु अब परिस्थिति अलग है, परन्तु सोचिये आखिर उनके बगैर कारोबारी गतिविधियों को रफ्तार कैसे मिलेगी? यह चिंता इसलिए भी की जानी चाहिए, क्योंकि शहरों में अपनी उपेक्षा-अनदेखी से आहत मजदूरों में से तमाम ऐसे हैं जो फिर नहीं लौटना चाहते। जो लौटेंगे भी वो ३० मई तक तो असम्भव है तो क्या बिना मजदूर के फ़ैक्ट्रियां चलेगी ? मजदूर के बिना अर्थव्यवस्था साँस ले पायेगी? मजदूर के बिना राष्ट्र निर्माण नहीं होते। अब आयेगा ऊंट पहाड़ के नीचे, अब पता चलेगा हमारी ख्वाइश के लिए अपने ख्वाबों की आहुति देने वाले शख्स की उपयोगिता।