दोहा:दुनिया की सबसे लंबी दो दशक तक चलने वाली जंग शनिवार को कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और आतंकी संगठन तालिबान के शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के साथ ही खत्म होने की संभावना है। इस दौरान भारत का प्रतिनिधि भी मौजूद रहेगा।
तालिबान के साथ होने वाली इस बैठक में हिस्सा लेने के लिए अफगानिस्तान, अमेरिका, भारत, पाकिस्तान समेत 30 देशों के प्रतिनिधि दोहा पहुंच गए हैं। अफगानिस्तान में शांति और सुलह प्रक्रिया का भारत एक अहम पक्षकार है। कतर में भारत के राजदूत पी. कुमारन इस समारोह में हिस्सा लेंगे। यह पहला मौका होगा, जब भारत तालिबान से जुड़े किसी मामले में आधिकारिक तौर पर शामिल होगा। बताया जा रहा है कि इस समझौते पर तालिबान का सहसंस्थापक मुल्ला अब्दुल बरदार हस्ताक्षर करेगा। कार्यक्रम में अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोंपियो हिस्सा लेंगे।
तालिबान का पक्षधर पाक
तालिबान का इस समझौते के पीछे पूरा मकसद अफगानिस्तान में दोबारा सरकार कायम करना है। इसमें पाकिस्तान भी उसकी मदद कर रहा है। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान की वर्तमान में चुनी गई सरकार की जगह तालिबान की हुकूमत कायम हो। इससे पहले जब अफगानिस्तान में तालिबान ने अपनी सरकार बनाई थी, तब केवल पाकिस्तान ने ही उसको मान्यता दी थी। इसकी वजह यह भी है कि अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार भारत के हितों की पक्षधर रही है। भारत और अफगानिस्तान की सरकार के बीच बेहतर संबंध भी हैं।
ब्रिटेन, सोवियत संघ और अब अमेरिका
इस शांति समझौते के बाद अमेरिका, अफगानिस्तान से लड़ाकू भूमिका से हट जाएगा, लेकिन उसके सैन्य अड्डे अफगानिस्तान में बने रहेंगे। पिछली तीन सदी में ऐसा तीसरी बार हो रहा है, जब किसी महाशक्ति को अफगानिस्तान छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है। 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन को अफगानिस्तान से हटना पड़ा। इसके बाद 19 सदी में महाशक्ति सोवियत संघ ने वर्ष 1979 में अफगानिस्तान में प्रवेश किया। लेकिन काफी नुकसान होने के बाद फरवरी, 1989 में उसे भी अफगानिस्तान से जाना पड़ा था। वहीं अब समझौते के बाद अमेरिकी सेना की वापसी होने की संभावना है।
अफगान में हमला कर फंसा अमेरिका
11 सितंबर, 2001 को चार हवाई जहाजों को हाईजैक कर अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारत और पेंटागन पर अल-कायदा के आतंकियों ने हमला किया था, जिसमें करीब 3000 लोगों की मौत हुई थी। अल-कायदा से हमले का बदला लेने के लिए अमेरिका और उसके सहयोगी नाटो देशों ने 7 अक्तूबर को अफगानिस्तान में हमला किया। भीषण युद्ध के बाद अमेरिका और नाटो देश अफगानिस्तान में सत्ता बदलाव में सफल हो गए, लेकिन उन्हें आंशिक सफलता ही हाथ लगी।
आर्थिक नुकसान :
– 750 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च तालिबान के खिलाफ जंग में खर्च हुआ
– 1.5 अरब डॉलर हर साल अफीम की तस्करी से कमाता है तालिबान
सैन्य बल :
– 39 नाटो सदस्य देशों व अमेरिका की सेना तैनात है।
– 31 हजार सेना तैनात, जिसमें 14 हजार अमेरिकी सैनिक।
हिंसा :
-32,000 अफगान नागरिक मारे गए 2009 से 2019 के बीच
– 60 हजार से अधिक अफगान नागरिक घायल हो गए
-45 हजार सैनिक इस युद्ध में 2014 से अगस्त, 2019 तक मारे गए
– 3,459 अमेरिकी और नाटो सैनिक मारे गए 18 सालों में
-31,000 से ज्यादा तालिबानी लड़ाके 18 वर्षों में मारे गए
– लाखों लोग पलायन कर गए
शांति प्रयास :
-2007, 2010, 2011 में ओबामा प्रशासन ने शांतिवार्ता के प्रयास किए जो असफल रहे।
-2018 और 2019 में कई चरणों में ट्रंप प्रशासन के दौरान यह प्रयास हुए जिनके बाद अब समझौते की उम्मीद बंधी है।