कलाकारः तापसी पन्नू, पाविल गुलाटी, सिद्धांत कर्णिक, दीया मिर्जा, राम कपूर, कुमुद मिश्रा आदि
निर्देशकः अनुभव सिन्हा
नारी व्यथा पर फ़िल्म काफी समय से बन रही है लेकिन अनुभव सिन्हा की निर्देशन में बनी फिल्म ‘थप्पड़’ में ऐसा क्या है जो अलग है? हमेशा से पुरुषवर्ग समाज कभी दहेज, कभी घरेलू हिंसा, कभी यौन उत्पीड़न, कभी गृहणी बनाकर उसके स्वाभिमान को रौंदता रहा है। इस पर नारी ने आवाज जरूर लगाई लेकिन तब, जब दर्द उसके बर्दास्त से बाहर हुआ। जब अपराध की शुरुआत होती है तभी अगर हम अपने आत्मसम्मान के लिए आवाज उठाएं तो बदलाव जरूर होगा। वैसे कहा गया है ‘आवत ही हरसे नहीं नैनन नहीं स्नेह तुलसी तहाँ ना जाइये कंचन बरसे मेघ’ अर्थात जहाँ हमारी कद्र नहीं वहाँ अपना ज़मीर खोकर क्या रहना। चाहे वो घर हो या बाहर।
लगभग नब्बे प्रतिशत महिलाओं को समझौता करके जीवन जीना पड़ता है, चाहे वो गृहणी हो या फिर कामकाजी महिलाएं। पुरुष अपने किसी भी प्रकार की समस्या को झल्लाहट के रूप में औरतों पर हाथ उठाकर दूर करता है। लेकिन क्या यह सही है? क्यों न जब पुरुष औरतों की भावनाओं को अनदेखा कर उसे वस्तु तुल्य जानकर औरत पर अधिकार जताए या हाथापाई करे, उस वक़्त नारी को ऐसा होने का विरोध करनी चाहिए। बस एक थप्पड़ ही तो है यह सोचकर चुप्पी साध लेना औरतों के लिए भयावह स्थिति उत्पन्न करने के लिए काफी है फिर वो कभी अपना आत्मसम्मान प्राप्त नहीं कर पाती, ना ही पुरुष की नज़रों में ना ही खुद की।
हर घर की गृहस्थी की यह एक कड़ी है और इसी कड़ी को एक मजबूत अंदाज़ में निर्देशक अनुभव सिन्हा ने अपनी फिल्म में बहुत ही हृदयस्पर्शी और मार्मिक अंदाज़ में फिल्माया है। यह सभी वर्गो की नारी मनोभावना को प्रदर्शित करता है। साथ ही यह भी दिखाया गया है कि किस प्रकार सदियों से नारी को बर्दाशत कर समझौते से जीना तो सीखा दिया गया पर पुरुष को नारी सम्मान करने की सीख देने में अनदेखी कर दी गयी।
कहानीः फ़िल्म के अनुसार अमृता उर्फ अम्मू (तापसी पन्नू) मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की है जिसका विवाह उच्चवर्गीय परिवार में विक्रम शेखावत (पाविल गुलाटी) से कर दिया जाता है। विक्रम अपने काम को लेकर महत्वाकांक्षी है और मेहनती भी है। अम्मू स्वेच्छा से गृहणी बनकर अपने पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वहन करती है। पति की खुशी में स्वयं की खुशियों को अपने स्वप्नों में ही छोड़ आयी है। सभी सही है तभी विक्रम को अपनी कंपनी की ओर से विदेश जाने का मौका मिलता है। वह बेहद खुश है और पूरा परिवार भी उसकी खुशियों में शामिल है। खुशी जाहिर करने के लिए विक्रम बड़ी पार्टी देता है। तभी उसे उसके बॉस थापर का फोन आता है और सच्चाई सुनकर विक्रम व्यथित हो जाता है कि अब उसे किसी दूसरे नए व्यक्ति के अंदर काम करना पड़ेगा। उसकी योग्यता को कम आंका जा रहा है। वह परेशानी में अपने सिनीयर से पार्टी में लड़ने लगता है और अम्मु उसे रोकने की कोशिश करती है। विक्रम खीझकर अम्मु को सबके सामने थप्पड़ मार देता है वहां खड़े सभी व्यक्ति मूकदर्शक की तरह कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। यह घटना अम्मु को अंदर से झकझोर देती है। वह घर का दैनिक काम तो करती है पर उसकी खुशी, उसका आत्मसम्मान कहीं खो जाता है। विक्रम उसे खुश करने के लिए खाने पर ले जाता है। अम्मु को समझाने के लिए अपना पक्ष रखता है लेकिन माफी मांगना मुनासिब नहीं समझता। अम्मु अपने ही घर में खुद की अहमियत को खत्म होता देख अपने मायके चली जाती है। सभी अम्मु के साथ हुई घटना को साधारण बात कहकर टालने की कोशिश करते हैं। लेकिन अम्मु अपने आत्मसम्मान को खोकर जीना नहीं चाहती। वह अपने सम्मान की लड़ाई पर अग्रसर होती है।
क्या अम्मु की सोच गलत है बस इतनी सी बात होती है अपने पति से थप्पड़ खाना? क्या अम्मु अपने आत्मसम्मान के लिए हिम्मत दिखाने में कामयाब रही? क्या विक्रम को अपनी गलती समझ आयी? यह सब जानने के लिए फ़िल्म अवश्य देखें।
यह केवल एक अम्मु कि कहानी नहीं अपितु फ़िल्म देख आप स्वयं को फ़िल्म से जुड़ा हुआ महसूस करेंगे।
अभिनयः फ़िल्म ‘मुल्क, बदला, पिंक’ की तरह ही तापसी पन्नू ने अपनी उम्दा अदाकारी से अपने पात्र को जीवंत किया है। पाविल गुलाटी ने अपनी पहली ही फ़िल्म में ग्रे शेड भूमिका निभाकर अपना उम्दा अन्दाज दिखा दिया। दिया मिर्जा, रत्ना पाठक शाह, तन्वी आज़मी, कुमुद मिश्रा, नैला ग्रेवाल, राम कपूर, मानव कौल, सुशील दाहिया, सिद्धांत कार्णिक, अंकुर राठी जैसे बेहतरीन कलाकारों ने अपनी अपनी भूमिकाएं सार्थक की है।
निर्देशन/म्युजिकः बनारस मीडिया वर्क और टी सिरीज़ के बैनर तले बनी फिल्म थप्पड़ का फिल्मांकन बेहतरीन है। हर दृश्य में एक संवेदना निहित है। गाने साधारण हैं। फ़िल्म के संवाद हृदयस्पर्शी है। ‘अगर कोई चीज़ जोड़ कर रखी है मतलब टूटा हुआ है’ जैसे कई संवाद दर्शकों को प्रभावित करेंगे। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने स्त्री भावना और उसके आत्मसम्मान का बहुत सुंदर चित्रण किया है साथ ही पुरानी रूढ़िवादिता पर कुठाराघात भी किया है।
फ़िल्म का हर दृश्य आपको अपनी कुर्सी से उठने नहीं देगा। लेकिन फिर भी एक चीज़ आपके जहन में कौंधेगी, क्या एक थप्पड़ पर अम्मु का फैसला सही था? लोगों की सोच अभी बदली नहीं है। फ़िल्म है तो ठीक लेकिन वास्तविक जीवन में अभी संघर्ष बाकी है। पहली गलती माफ कर सकते है, लेकिन दुबारा यदि वही काम दोहराया जाए तो यह गलती नहीं अपराध होता है जो माफी के योग्य नहीं। परंतु पहले ही गलती पर विरोध ? सही या गलत दर्शकों का फैसला है। पूरे परिवार के साथ यह फ़िल्म देखने योग्य है।
सुरभि सलोनी की तरफ से फिल्म को 3 स्टार।
- गायत्री साहू ([email protected])