कलाकार – अतुल कुलकर्णी, दिव्या दत्ता, रिम शेख़, मुकेश ऋषि, ओमपुरी, कमलेश गिल, आरिफ ज़कारिया, अभिमन्यु सिंह, इमरान हसनी, एज़ाज़ खान आदि
निर्माता – संजय सिंघाल, प्रीति विजय जाजू, धवल जयंतीलाल गाड़ा, अक्षय जयंतीलाल गाड़ा
बैनर – टेक्नो फिल्म्स
निर्देशक – एच. ई. अमजद खान
कहानी – फ़िल्म की कहानी नोबल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई की ज़िंदगी पर आधारित है, जो मलाला के संघर्ष और उसके जीवन के अनछुए पहलुओं और पाकिस्तान की अवाम की दुर्दशा को चित्रित करती वास्तविक कथा है। लड़कियों की शिक्षा के लिए और आवाम की स्वतंत्रता के लिए मलाला यूसुफजई का प्रयास जग जाहिर है वह किसी से अछूता नहीं है। इसी वास्तविक कहानी को फ़िल्म ‘गुलमकई’ में दिखाने की कोशिश की गई है। पाकिस्तान के स्वाट वैली के मिंगोरा गांव में ज़ियाउद्दीन यूसुफजई (अतुल कुलकर्णी) गर्ल्स स्कूल के प्रिंसिपल है। वह अपनी पत्नी तूर पिकई (दिव्या दत्ता) और तीन बच्चों के साथ खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे थे। उनकी पुत्री मलाला (रिम शेख़) अपने पिता के ही विद्यालय में पढ़ती है। उसे पढ़ने का शौक है। पाकिस्तान में तालिबानी दहशतगर्दों ने वहाँ के आवाम का जीना मुश्किल बना दिया है। इस्लाम के नाम पर सभी ओर तानाशाही है। लोगों को सरिया कानून मानना पड़ता है, पुरुषों को दाढ़ी, महिलाओं को बुरखा पहना जरूरी है। लड़कों को जबरदस्ती दहशतगर्द बनाया जा रहा है और लड़कियों का बाहर अकेले आना जाना और पढ़ाई की सक्त मनाही है। जो उनकी अवज्ञा करते हैं उन्हें मौत की सजा मिलती है। उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री परवेज़ मुशर्रफ भी इन तालिबानी दहशतगर्दों को रोकने में अक्षम सिद्ध हो रहे थे। इसी बीच दहशतगर्दों के खिलाफ ज़ियाउद्दीन युसुफ़ज़ई ने कुछ लोगों के साथ आवाज उठाई पर उन्हें मौत की धमकियाँ मिली और कई लोगों पर हमले हुए, कुछ मारे भी गए। लेकिन इन्होंने अपनी आवाज दबने नहीं दिया। मलाला ने ब्लॉग लिखकर जनचेतना फैलाई। आवाम के पास जाकर स्त्री शिक्षा के लिए प्रेरित किया। लेकिन पाकिस्तान सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। इस अभियान से ख़फ़ा होकर दहशतगर्दों ने मलाला पर गोलियां चलाई। लंबे समय के इलाज के बाद मलाला का जीवन बच गया। इस घटना के बाद देश विदेश में विरोध हुआ जिससे मलाला का अभियान सफल रहा। पाकिस्तान सरकार ने सहायता की और मलाला को कई पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
तकनीक और निर्देशन – फ़िल्म की कहानी से पूरी दुनिया वाकिफ है फिर भी ऐसे गंभीर विषयों वाली किसी की जीवनी को पर्दे पर दर्शाना आसान काम नहीं होता। निर्देशक ने प्रयास किया पर वे पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाए। फ़िल्म में तकनीक का अच्छा इस्तेमाल है पर यह दर्शकों को बांधे रखने में सफल नहीं होती। पाकिस्तानी शासन की क्रूरता, पाकिस्तानी सैनिकों और दहशतगर्दों की लड़ाई, आवाम का दर्द को दिखाया गया है लेकिन फ़िल्म कहीं ना कहीं बोझिल महसूस होती है। कैलाश खेर का जोश भरा गीत भी अधिक प्रभावी नहीं दिखता।
अभिनय – सारे कलाकार अभिनय जगत के नामी कलाकार है। सभी ने उम्दा अभिनय किया है। लेकिन अभिनय से ज्यादा फ़िल्म में युद्व के दृश्य हैं। फ़िल्म गुलमकई एक वास्तविक और हृदयस्पर्शी भावनाओं से भरी कथा है। लोगों के लिए प्रेरणादायी होते हुए भी हृदय को शत प्रतिशत जीत पाने में असफल सिद्ध होती है। लेकिन भारत का जो वर्तमान माहौल है उसमें लोगों को यह फिल्म अवश्य देखना चाहिए। तभी उन्हें पाकिस्तान की वास्तविकता के दर्शन हो जाएंगे। यह फ़िल्म देखने के बाद यह पता चला कि मुस्लिम बाहुल्य होते हुए भी वहाँ के मुस्लिम समुदाय किस दर्द से जी रहे हैं। पाकिस्तान सरकार और दहशतगर्दों के जुल्मों का वे आज भी शिकार हो रहे हैं। वहीं भारत की जनता को अपनी अभिव्यक्ति का अधिकार है। अतः एक बार पाकिस्तान की मार्मिक स्थिति जानने के लिए यह फ़िल्म अवश्य देखें। यह वास्तविक घटना पर आधारित फिल्म है ना कि कोरी कल्पना।
- गायत्री साहू