स्मार्टफोन आज हमारी हैसियत का प्रतीक भर नहीं रह गया है। गुजरे एक दशक में यह हमारे रोजमर्रा जीवन का एक जरूरी हिस्सा बन चुका है। हम इसका इस्तेमाल टेक्स्ट, ईमेल, एप्लिकेशन और सोशल मीडिया के जरिये दुनिया से जुड़ने के लिए करते हैं।
एक एनालिटिक्स कंपनी की साल 2018 की इस रिपोर्ट से किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए कि औसतन एक भारतीय व्यक्ति एप पर, और इस तरह फोन पर रोजाना लगभग तीन घंटे बिताता है। फोन वह पहली चीज होती है, जिसे हम नींद से जगने पर सबसे पहले देखते हैं और यही वह आखिरी चीज होती है, जिसे हम सोने से पहले देखते हैं।
अगर आप लोगों के साथ बातचीत करने के मुकाबले अपने स्मार्टफोन पर अधिक समय बिताते हैं या खुद को दुनिया-जहान की खबरों से वाबस्ता रखने के लिए बार-बार स्मार्टफोन को ढूंढ़ते हैं तो आपको संभवत: समस्या है। आपका फोन ऐसी एक समस्या का कारण बन रहा है, जिसे विशेषज्ञों ने ‘स्मार्टफोन तनाव’ नाम दिया है।
यह हमारी नींद, उत्पादकता, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य तथा आवेग नियंत्रण को प्रभावित करता है। यह धुंधली नजर, नींद में विकार और पीठ दर्द जैसे शारीरिक लक्षणों के रूप में प्रकट होता है।
नवजात और शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. मुबाशिर मुजम्मिल खान कहते हैं- स्मार्टफोन तनाव काफी हद तक किसी बच्चे या वयस्क के फोन का उपयोग करने के घंटों पर निर्भर करता है। लेकिन फोन पर बिताया गया समय इस समस्या का एकमात्र कारक नहीं है। यह हमें साइबर बुलिंग, सामाजिक तुलना से संबंधित विवादों, नकारात्मक भावनाओं और एफओएमओ (खो जाने का डर) जैसे खतरों के भी करीब पहुंचा देता है।
इसी साल अमेरिका में हुए एक अध्ययन से पता चला कि 90 फीसदी मिलेनियल अर्थात बीते दो-ढाई दशक में पैदा हुए लोग अपने फोन का उपयोग शौचालय में करते हैं, जबकि 23 वर्ष से कम उम्र के 96% लोग अपने फोन के बिना बाथरूम जाना भी पसंद नहीं करते।
फोन हमेशा हाथ में रखना
काम का दबाव समस्या को और बढ़ा देता है। मार्केटिंग एग्जिक्यूटिव आकाश सिन्हा का दावा है कि स्मार्टफोन रखने के बाद से उनके तनाव का स्तर तेजी से बढ़ा है। उन्होंने कहा, ‘मैं हमेशा फोन के संपर्क में रहता हूं। मुझे ग्राहकों से किसी भी समय ईमेल मिलते हैं और मुझे तुरंत जवाब देने की जरूरत महसूस होती है। अगर मैं जगते ही अपने बॉस का संदेश देखता हूं तो बिस्तर से उठने से पहले ही काम कर लेता हूं। दबाव हमेशा रहता है और मुझे हर समय तनाव महसूस होता है।’
हमारे शरीर में कोर्टिसोल हार्मोन पाया जाता है, जिसका संबंध तनाव से होता है। आमतौर पर इस हार्मोन के स्तर में हमारे जगने के आधे घंटे बाद एक स्वाभाविक बदलाव आता है। लेकिन 2018 में ‘कंप्यूटर इन ह्यूमन बिहेवियर’ पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि स्मार्टफोन का इस्तेमाल जगने के बाद होने वाली कोर्टिसोल की प्रतिक्रिया को बढ़ा देता है। कोर्टिसोल का बढ़ा हुआ स्तर कथित तौर पर मधुमेह, मोटापा, उच्च रक्तचाप और अवसाद जैसी स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है। इससे असमय मौत भी हो सकती है।
संयोग से 14 से 18 वर्ष के किशोरों को स्मार्टफोन तनाव का सबसे अधिक खतरा होता है। दरअसल वे उम्र के जिस दौर में होते हैं, उसमें मस्तिष्क के विकास को किसी लत या नशे से प्रभावित होने का सबसे ज्यादा खतरा रहता है। डॉ. खान कहते हैं, स्मार्टफोन का लगातार इस्तेमाल करने से बच्चों में कोर्टिसोल जैसे हार्मोन बढ़ जाते हैं। इससे बच्चे इन चीजों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो जाते हैं कि उनके चित्रों को लोग कितना पसंद करते हैं, या सोशल मीडिया पर उनके पोस्ट की कितनी तारीफ करते हैं। इससे उनमें तनाव बढ़ता है। ऐसे मामलों में हमने पाया कि जिन बच्चों के स्मार्टफोन के संपर्क में रहने के समय में कटौती की जाती है, उनमें बेचैनी और गुस्सा बढ़ जाता है।
डिजिटल न्यूट्रिशन जरूरी
स्मार्टफोन के कारण होने वाली चिंता वास्तविक है। यह तब और अहम हो जाती है, जब डिजिटल तनाव या सूचना की अधिकता के बोझ की रिपोर्ट करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।
इन समस्याओं का समाधान भी आसपास ही मिल सकता है। स्मार्टफोन के यूजर को तनाव पैदा करने के कारणों और समय रहते उनसे निपटने के बारे में जानना चाहिए। इसका मतलब यह भी है कि हम किसी डिजिटल उपकरण के साथ कितना समय बिताते हैं और किसी डिजिटल सामग्री का किस प्रकार इस्तेमाल करते हैं।
मनोचिकित्सक डॉ. यूसुफ माचिसवाला कहते हैं, डिजिटल डिटॉक्स सहायक होने के बावजूद आज की दुनिया में पूरी तरह व्यावहारिक नहीं है। जबकि डिजिटल न्यूट्रिशन अधिक यथार्थवादी विकल्प है। अपने उपकरणों का सीमित समय तक उपयोग करना और बाकी समय उनसे सक्रिय रूप से दूर रहना हमारे लिए बहुत मददगार हो सकता है। हम महत्वपूर्ण संचार से दूर नहीं रह सकते, लेकिन हम स्मार्टफोन के साथ रहने के अपने समय को सीमित करने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।
आंकड़ों को देखें, तो एसोचैम-पीडब्ल्यूडी के संयुक्त अध्ययन के अनुसार, साल 2022 तक भारत में स्मार्टफोन के उपयोक्ताओं की संख्या, वर्ष 2017 के 46.8 करोड़ के मुकाबले दोगुनी होकर 85.9 करोड़ हो जाने का अनुमान है। प्रति स्मार्टफोन प्रति माह औसतन 9.8 जीबी डाटा यूज करने के साथ भारत स्मार्टफोन पर डाटा यूज करने के मामले में दुनिया में सबसे आगे है। स्वीडिश दूरसंचार उपकरण निर्माता एरिक्सन की एक नई रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है।
तनाव के संकेत-
-घंटों और लगातार स्मार्टफोन का उपयोग करना
-परिवार और दोस्तों के साथ बातचीत करने की बजाय केवल गेम खेलना, मैसेज भेजना, वीडियो देखना आदि
-अपडेट के लिए स्मार्टफोन की जांच करने को लेकर बेचैनी महसूस करना
-जब फोन आपके साथ न हो, तब चिंता, घबराहट या भय महसूस करना
-सामाजिक चिंता या अकेलेपन को दूर करने के लिए ढाल के रूप में फोन का उपयोग करना
हम इस गैजेट से पूरी तरह मुक्त तो नहीं हो सकते, लेकिन कुछ उपायों को अपनाकर इसकी वजह से होने वाली बेचैनी को जरूर कम कर सकते हैं
उपयोगी सुझाव-
-डायबेटोलॉजिस्ट डॉ. प्रदीप गाडगे सलाह देते हैं कि अपने स्मार्टफोन के इस्तेमाल को सीमित करें।
-सिर्फ काम के दौरान ही फोन इस्तेमाल करने की आदत डालें।
-यदि आप अपने कामकाजी और व्यक्तिगत जीवन को अलग-अलग रखें तो इससे स्मार्टफोन के इस्तेमाल को सीमित करने में मदद मिलेगी।
-फोन को अपने साथ बाथरूम में न ले जाएं।
-फोन या टैबलेट को बिस्तर पर न लाएं। इसकी बजाय कोई अच्छी किताब उठाएं।
-अपने फोन से सोशल मीडिया एप हटा दें। उन्हें केवल अपने कंप्यूटर पर देखें।