मुंबई। आ. रविशेखरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा में नेमानी वाड़ी, ठाकुरद्वार के प्रांगण में आज प्रवचन में पं. ललितशेखरविजयजी म. सा. ने “गुरु आज्ञा” विषय पर प्रवचन दिया।
दुष्कृत की हमेशा निंदा करनी चाहिए, पाप भीतर में पड़े हुए हैं, पापी आत्मा के पास पाप की सामग्री आने पर वो पाप करने में और ताक़तवर हो जाता हैं। घोड़ों के उदाहरण से समझाया के 4 प्रकार के जीव होते हैं, 1. भारे कर्मी जीव, अड़ियल, विषय-कषाय में युक्त जो कर्म सत्ता की अतिशय मार पड़ने पर चलते हैं, 2. भारे कर्मी पर प्रज्ञापनीय जीव जो 1 बार मार पड़ने पर चलते हैं, 3. लघु कर्मी जीव जो मार पड़ने के डर से चलते हैं और 4. निकट मोक्षगामी जीव जो सवार के चढ़ते ही चले यानी रोज धर्म क्रिया करते हैं।
जो तत्वों को ग्रहण करें, जो उंगली से रास्ता दिखाए, जो उंगली पकड़ाए, जो उंगली पकड़े, जो आंख लाल करें, जो डांटे, जो चांटा मारे, आदि वो गुरु और जो इन सब आज्ञा का पालन करें वो शिष्य होता हैं। देव-गुरु-धर्म, मन-वचन-काया और दर्शन-ज्ञान-चरित्र, इनमें बीच में गुरु, वचन और ज्ञान को रखा गया हैं क्योंकि गुरु के वचनों के माध्यम से ज्ञान मार्ग मिलता हैं, गुरु मध्यस्थ हैं, गुरु के बिना धर्म करने से देव नहीं मिल सकते। परमात्मा जो परमगुरु हैं उनके वचनों को छद्मस्त गुरु जिन वाणी के रूप में शिष्य तक पहुचाते हैं।
परमात्मा वीतरागी हैं इसलिए उनमें कोई दोष नहीं हैं, गुरु छद्मस्त हैं इसलिए दोष होते हैं, जो दृष्टि दोष के कारण हमें दिखते हैं, गुरु में गौतम स्वामी के दर्शन होने चाहिए, गुरु के वचनों की अवहेलना करने वाला अनंतकाल के लिए भटकता रहता हैं। शबरी को सालों के इन्तेजार के बाद प्रभु राम मिले तब शबरी ने झूठे बैर खिलाये, द्रव्य खराब था पर भाव अच्छे थे, पर हमारे द्रव्य अच्छे हैं और भाव मलिन हैं इसलिए अबतक प्रभु नहीं मिले।
किशन सिंघवी और कुणाल शाह के अनुसार नेमानी वाड़ी में आज बकरी ईद के दिन सामूहिक आयंबिल तप की व्यवस्था की गई जिसमें 450 पुण्यशालियों ने आयंबिल करके अबोल जीवों की आत्मा की शांति के लिए अपनी त्याग भावना व्यक्त की और ऐसे ही भावनाओं से जैन समाज सुख और समृद्धि को प्राप्त करता हैं और आत्म कल्याण की राह पर आगे बढ़ता हैं। इन सभी मौकों पर ठाकुरद्वार संघ के पदाधिकारी और समर्पण ग्रुप के कार्यकर्ताओं के अलावा सैकड़ों श्रावक-श्राविकाएं भी मौजूद रहे।
जो तत्वों को ग्रहण करें, जो उंगली से रास्ता दिखाए: ललितशेखरविजयजी म. सा.
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