पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) 2017-18 की ताजा रिपोर्ट में इन सवालों के जवाब मिले हैं। NSSO के रोजगार और बेरोजगारी सर्वे (EUS) की जगह अब PLFS ने ले ली है। इस रिपोर्ट से पता चला है कि देश के कार्यबल में रेग्युलर सैलरीड जॉब्स की हिस्सेदारी 2011-12 (तब पिछली रिपोर्ट आई थी) और 2017-18 के बीच 5 फीसदी बढ़ी है। PLFS रिपोर्ट के मुताबिक, पुरुष और महिला कामगारों की रेग्युलर जॉब्स में आमदनी कैजुअल और सेल्फ एंप्लॉइड की तुलना में अधिक है।
सर्वे के मुताबिक, भारत में 45 रेग्युलर वर्कर्स को प्रतिमाह 10 हजार से कम सैलरी मिल रही है। 12 फीसदी को तो 30 दिनों की मेहनत के बदले 5 हजार रुपये से भी कम मिलते हैं। नियमित महिला कर्मचारियों में 63 फीसदी की आमदनी 10 हजार रुपये से कम है, जबकि 32 फीसदी की सैलरी 5000 रुपये से भी कम है। वहीं, यदि ग्रामीण भारत की बात करें तो 55 फीसदी नियमित कामगारों को 10 हजार रुपये से कम सैलरी मिल रही है। शहरी भारत के लिए यह आंकड़ा 38 फीसदी है।
कितने लोग कमा रहे हैं 50 हजार से अधिक
महज 3 फीसदी रेग्युलर वर्कर्स को हर महीने 50 हजार से 1 लाख रुपये तक सैलरी मिल रही है, जबकि 1 लाख से अधिक आमदनी वाले महज 0.2 फीसदी हैं।
सैलरी में कितनी वृद्धि
सैलरी में वृद्धि की बात करें तो जुलाई-सितंबर 2017 में ग्रामीण भारत में रेग्युलर वर्कर्स की औसत सैलरी 11,878 रुपये थी जो अप्रैल-जून 2018 में बढ़कर 13207 रुपये हुई है। वहीं, शहरी भारत में इसी दौरान सैलरी 1653 से बढ़कर 17,473 रुपये हुई है।
सामाजिक सुरक्षा और छुट्टियां
PLFS रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि करीब 50 फीसदी रेग्युलर वर्कर्स को सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा है। 54.2 फीसदी को वैतनिक छुट्टियां नहीं मिलती हैं।
इन्हें सबसे कम पैसे
प्राथमिक व्यवसाय (सरल, रूटीन काम और टूल्स और शारीरिक श्रम, जैसे कचरा एकत्र करने वाले और चौकीदार) में शामिल रेग्युलर वर्कर्स को सबसे कम (7000 रुपये मासिक) सैलरी मिलती है, जबकि मछुवारे और कुशल कृषि श्रमिकों को भी औसतन 8 हजार रुपये ही मिलते हैं।