– शासन श्री साध्वी सोमलता।।
भारतवर्ष में दो संस्कृतियां समानान्तर रूप से प्रवहमान रही हैं। वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति। श्रमण संस्कृति कालक्रम से जैन संस्कृति के रूप में प्रख्यात हुई। जिसके जनक के रूप में भगवान महावीर का नाम श्रद्धा और गौरव से लिया जाता है। महावीर का जीवन अथ से इति तक सत्य की अविच्छिन्न कड़ी से जुड़ा है। उन्होंने साध्य – आराध्य सब कुछ सत्य में समाविष्ट था। महावीर यानी सत्य और सत्य यानी महावीर। उनका एक ही मंतव्य मंत्र था – यदि सत्य को पा लिया तो सब कुछ पा लिया। यदि सत्य को नहीं पाया तो कुछ भी नहीं पाया। उनका घोष था – सच्चं भयवं। सच्चं लोयम्मि सारभूयं! अर्थात सत्य ही भगवान है और यही लोक में सारभूत तत्व है। सत्य के अनुसंधान के लिए उनका माध्यम था – अनेकांतवाद। उन्होंने कहा – सत्य को संप्रदाय, जाति, वर्ग और राष्ट्र की सीमाओं में मत बांधो। क्योंकि सत्य विराट है। विशाल है। उसे व्यापक दृष्टिकोण से देखोगे तो सुलझ जाओगे। संकीर्ण दृष्टि से देखोगे तो उलझ जाओगे। अधिकांशतः सभी समस्याओं का सही समाधान अनेकांत दर्शन में निहित है। महान आचार्य समन्तभद्र ने लिखा – महावीर के अनेकांत में सर्वोदय सन्निहित है। इसमें सबका उदय करने की क्षमता है। महावीर द्वारा प्रतिपादित इस पद्धति को विश्व धर्म कहना ज्यादा समीचीन होगा। क्योंकि जहां अमीर – गरीब, स्त्री-पुरुष, साक्षर-निरक्षर, बाल-वृद्ध सबके कल्याण के बीच जहां विकसित, पुष्पित-फलित हो सकते हैं। वही तो जन-जन का धर्म यानी विश्व धर्म है।
भगवान महावीर ‘आय तुले पयासु’ की साकार प्रतिमा थे। उन्होंने अपनी आत्मा और एक सूक्ष्म प्राणी की आत्मा में कोई भेद नहीं देखा। सारे प्राणियों में समान प्राणधारा है। इसे व्यवहारिक घरातल पर लाने के लिए उन्होंने अहिंसा की बात कही। अहिंसा सबके लिए कल्याणकारी है। अपेक्षा है भगवान को समझने की न केवल पूजने की।
भगवान महावीर अहिंसा के प्रखर प्रवक्ता थे। उन्हें अहिंसा और परिग्रह की गुत्थियों को अहिंसा से सुलझाना अभीष्ट था। इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े युद्धों से उपजी हिंसा की ज्वालाओं को अहिंसा के शीतल नीर से शमित किया गया था। परिग्रह के पर्वत पर आरूढ़ शहंशाह भी अपरिग्रह के आसन पर बैठकर ही परमानंद का स्वाद ले सके थे। जरूरत है आज अहिंसा के प्रशिक्षण शिविरों की। हिंसा हमेशा से ही पराजित हुई है। कल भी, आज भी और कल भी होगी।
भगवान महावीर के 2618वें जन्मोत्सव पर जुलूस, झांकियां, नारे, प्रभावना आदि अनेक आयोजनों के बावजूद यदि महावीर – वाणी को आचरण में नहीं ला सकें तो सब कूल अलूणा रह जाएगा। समय का तकाजा है कि ‘परस्परोग्रहो जीवनाम्’ को जबान से उतारकर जीवन में लाएं। सद्भावना, सामंजस्य, सौहार्द, समन्वय और समरसता का शर्बत पीएं और पिलाएं। मानवता के अकाल को सुकाल में बदलने का पुरुषार्थी संकल्प करें। कबीर जी ने बड़े भारी मन से कहा होगा –
कबिरा मैं कोसां फिरयो, मिनखां तणो सुकाल।
जिनको देख्यां दिल ठरै, उनका बड़ा अकाल।।
अक्सर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर की जन्म जयंती पर प्रत्येक भाई बहन यदि एक संकल्प करे कि वह पानी और वाणी का उपयोग संयम से करेगा तो उस महामानव को प्राणवान पुष्प अर्पित करने का सौभाग्य हासिल कर सकेंगे। धरती पर अनन्त प्राणी आए और गए। पर महावीर जैसे तो महावीर ही थे। कहा है –
लाखों आते लाखों जाते, कोई नहीं निशानी है।
जिसने कुछ करके दिखलाया, उसकी अमर कहानी है।