कन्याकुमारी (तमिलनाडु): अद्भुत, अलौकिक, अद्वितीय, अकथ्य। जी हां! यह सारे शब्द समूह भी उस समय अपनी उपयोगिता पर प्रफुल्लित नजर आ रहे थे जब हिन्दुस्तान के पांव पखारने वाले हिन्द महासागर के किनारे भारतीय ऋषि परंपरा के संवाहक, जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें देदीप्यमान महासूर्य, अध्यात्म जगत के महासागर, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी महासागर के तट पर अवस्थित होकर अपने श्रीमुख से ज्ञानगंगा की धारा प्रवाहित कर रहे थे। यह दृश्य समुपस्थित हजारों नेत्रों का विषय तो बन ही रहा था, इसका साक्षी आकाश का सूर्य भी था जो मानों इस पल को निहारने के लिए ठिठका हुआ-सा महसूस हो रहा था। आचार्यश्री ने न केवल श्रद्धालुओं को पावन प्रेरणा ही प्रदान की, अपितु आचार्यश्री ने चतुर्विध धर्मसंघ की विभिन्न जिज्ञासाओं को भी समाहित किया।
तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास में नित नए अध्याय जोड़ने वाले महातपस्वी, अखण्ड परिव्राजक अपनी परिव्राजकता को पुष्ट बनाते हुए हिन्दुस्तान के अंतिम छोर कहे जाने वाले कन्याकुमारी में पधारे तो यह पल अपने आप ही इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया। भारत के पश्चिम, उत्तर, पूर्वोत्तर, पूर्व व दक्षिण भारत की धरती को श्रीचरणों से पावन बनाते हुए दक्षिण के अंतिम छोर कन्याकुमारी में निर्धारित समय से एक दिन पूर्व ही पधार गए। सोमवार को प्रातः आचार्यश्री ने स्टेला मेरिस इंस्टिट्यूट आॅफ डवलपमेंट स्टडिज से मंगल प्रवचन हेतु मंगल प्रस्थान किया। आज का मुख्य मंगल प्रवचन कार्यक्रम हिन्द महासागर के तट निर्धारित था। परिसर से आचार्यश्री जैसे ही बाहर निकले तो मार्ग अवरोह लिए हुए था। हिन्द महासागर ने अपने तट पर अनेकों कीर्तिमानों को बनते देखा होगा, अनेकों संतों को भी देखा होगा, लेकिन आज समता के महासागर को देख उत्साहित नजर आ रहा था। लगभग आठ सौ मीटर की दूरी तय कर आचार्यश्री हिन्द महासागर के तट पर अवस्थित प्रवचन पंडाल में पधारे। इस अविस्मरणीय क्षण को साक्षी बनने के लिए हजारों की संख्या में श्रद्धालु उपस्थित थे। आचार्यश्री के पधारते ही जयकारों की अवाज उठी तो मानों महासागर की गर्जना भी उसमें समाहित होती चली गई।
आचार्यश्री ने उपस्थित जनमेदिनी को पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि जीवन में पहले ज्ञान और फिर आचार का महत्त्व है। आदमी का ज्ञान सम्यक् हो तो आचरण भी सम्यक् हो सकता है। ज्ञान गलत हो तो आचरण भी गलत हो सकता है। आचार के मूल में ज्ञान हो तो आचार अच्छा हो सकता है। आदमी को अपने जीवन में सारभूत ज्ञान को ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी ज्ञान का सागर न बके, नदी न बन सके, कुंआ न बके तो ज्ञान की बाल्टी तो अवश्य बनने का प्रयास करे, ताकि उसके अनुसार वह आचरण कर सके। जितना हो सके आदमी अपने ज्ञान और आचार के विकास का प्रयास करे। सागर की तरंगों से प्रेरणा लेकर आदमी अपने भीतर ज्ञान की तरंगों को उठाने का प्रयास करे। सम्यक् ज्ञान और आचार का विकास होगा तो आदमी मुक्तिश्री के वरण की दिशा में गति कर सकता है। आचार्यश्री ने इस अवसर पर पूर्वाचायों का भी स्मरण किया।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्या साध्वी संबुद्धयशाजी ने भी श्रद्धालुओं को उत्प्रेरित किया। कार्यक्रम के अंत में आचार्यश्री ने चतुर्विध धर्मसंघ को अपनी-अपनी जिज्ञासाओं को रखने का अवसर प्रदान किया। समण सिद्धप्रज्ञजी, मुनि विश्रुतकुमारजी, मुनि दिनेशकुमारजी, मुनि हितेन्द्रकुमारजी, साध्वी कार्तिकयशाजी, साध्वीवर्याजी, मुनि अनेकांतकुमारजी, श्री विमल सोनी व श्री डालमचंद नौलखा ने अपनी-अपनी जिज्ञासा रखी तो आचार्यश्री ने सभी की जिज्ञासाओं को समाहित किया। जैन मंदिर ट्रस्ट के श्री राजेन्द्रकुमार चैपड़ा ने अपनी भवाभिव्यक्ति दी। जैन विश्व भारती की ओर प्रकाशित पुस्तक ‘धम्म जागरणा’ को जैन विश्व भारती के पूर्व अध्यक्ष श्री धरमचंद लुंकड़, श्री केवलचंद माण्डोत आदि ने आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित की।
हिन्द महासागर किनारे अध्यात्म के महासागर महातपस्वी महाश्रमण
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