- प्रखर आतप में भी महातपस्वी महाश्रमण ने किया 14 कि.मी. का विहार
- वाघोली नगर पूज्यचरणों से हुआ पावन, शैक्षणिक पुनर्वसन प्रकल्प में हुआ पावन प्रवास
- आचार्यश्री की मंगलवाणी से विद्यार्थी भी हुए लाभान्वित
04.04.2024, गुरुवार, वाघोली, पुणे (महाराष्ट्र) । जन-जन को सन्मार्ग दिखाने, मानव-मानव में मानवीय गुणों का संप्रसार करने के लिए गतिमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, अखण्ड परिव्राजक, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी वर्तमान में महाराष्ट्र के पुणे जिले में गतिमान हैं। पुणे शहर को पावन बनाने के लिए उपरान्त महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने गुरुवार को प्रातःकाल पुणे शहर के बाहरी भाग में स्थित कल्याणी नगर से मंगल प्रस्थान किया। कल्याणी नगर में लोगों को कल्याणकारी प्रेरणा देने के उपरान्त जब आचार्यश्री ने अपने चरण गतिमान किए, तो श्रद्धालुओं ने श्रीचरणों में अपने कृतज्ञ भाव अर्पित किए। सभी को मंगल आशीष प्रदान करने के उपरान्त आचार्यश्री अपने गंतव्य पथ पर अग्रसर हुए। आचार्यश्री जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहे सूर्य की किरणों की प्रखरता और तीव्र होती जा रही थी। आचार्यश्री इस तपन से प्रभावित होकर जनमानस के भीतरी संताप के हरण को गतिमान थे। प्रखर आतप में भी लगभग 14 किलोमीटर का विहार कर भारतीय जैन संगठना के शिक्षण संस्थान भारतीय जैन संगठना शैक्षणिक पुनर्वसन प्रकल्प में पधारे। यहां आचार्यश्री का उपस्थित लोगों ने भावभीना अभिनंदन किया।
इस परिसर में ही आयोजित मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में उपस्थित श्रद्धालुओं को शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि हमारे जीवन में शरीर और जीव- दो तत्त्व बताए गए हैं। शास्त्रकार ने इस शरीर को एक नौका बताया और जीव को नाविक बताया तथा संसार को सागर बताया गया। शास्त्रकार ने बताया है कि इस संसार रूपी सागर को जीव शरीर रूपी नौका से तरने का प्रयास करे तो वह इस संसार से पार पा सकता है। इस नौका को छिद्र रहित रखने वाला मानव संसार सागर को पार कर सकता है। शरीर रूपी नौका में यदि पापों का छिद्र हो गया तो, आदमी इस संसार रूपी सागर में फंस जाता है। इसलिए आदमी को अपने जीवन को पाप रहित बनाने का प्रयास करना चाहिए। पापों से बचते हुए संयम और तप की साधना हो, धर्म की आराधना हो तो प्राणी संसार समुद्र से पार पा सकता है।
शरीर रूपी नौका से धर्माचरण करने का प्रयास करना चाहिए। धर्माचरण के लिए शरीर सक्षम हो, अनुकूल हो तो धर्माचरण भी अच्छा हो सकता है। इसलिए बताया गया कि जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करने लगे, तब तक धर्माचरण कर लेने का प्रयास करना चाहिए। दूसरी बात बताई गई कि जब तक शरीर व्याधि से मुक्त हो तो तब तक धर्म का समाचरण कर लेना चाहिए। व्याधि शरीर को जब कष्ट प्रदान करने लगेेगा तो फिर धर्माचरण भी कैसे हो सकता है। किसी की सेवा, धर्माराधना, तपस्या आदि भी कैसे संभव हो सकता है। इस संदर्भ में तीसरी बात बताई गई कि जब तक इन्द्रिय शक्ति क्षीण नहीं हुई हो, आदमी को धर्माचरण कर लेना चाहिए। इस प्रकार तीन बातें बुढ़ापा, व्याधि और बीमारी हैं, जो शरीर को पीड़ित करती हैं। इनके आने से पूर्व ही मानव को धर्म, ध्यान, साधना आदि के द्वारा इस संसार सागर को पार कर लेने का प्रयास करना चाहिए।
आज हमारा यहां आना हुआ है। यहां खूब अच्छा कार्य चलता रहे। आचार्यश्री के स्वागत में श्रीमती गीता श्यामसुखा ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। स्थानीय महिलाओं ने स्वागत गीत का संगान किया। प्रवास स्थल से संबद्ध श्री शांतिलाल मूथा ने भी अपने हर्षित भावनाओं को अभिव्यक्ति दी। मंगल प्रवचन के उपरान्त मध्याह्न में शैक्षणिक प्रकल्प में रहने वाले विद्यार्थी जब आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में उपस्थित हुए तो आचार्यश्री ने विद्यार्थियों को पावन प्रेरणा व मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।