- चित्त की विशुद्धि कल्याणकारी : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण
- आचार्यश्री की विविध प्रेरणाओं से लाभान्वित हुई जनता
- विधायक श्री गणेश नाईक ने किए पूज्यश्री के दर्शन
- वाशीवासियों ने आचार्यश्री के स्वागत में दी अपनी प्रस्तुतियां
12.02.2024, सोमवार, वाशी, नवी मुम्बई (महाराष्ट्र)। तीनों लोकों ने न्यारी नगरी काशी। गंगा के तट पर बसी अद्भुत शिवनगरी काशी को मोक्षदायिनी व अध्यात्म नगरी कहा जाता है। उसी न्यारी नगरी की भांति वर्तमान में नवी मुम्बई का उपनगर वाशी मानों अध्यात्म नगरी बन रही है, क्योंकि यहां जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी तेरापंथ धर्मसंघ के मर्यादा के महाकुम्भ ‘मर्यादा महोत्सव’ सहित ग्यारह दिवसीय प्रवास के विराजमान हो चुके हैं। जिस तक भगीरथी गंगा की निर्मल धारा भक्तों को तारती है, उसी प्रकार आचार्यश्री के श्रीमुख से निरंतर प्रवाहित होने वाली ज्ञानगंगा भक्तों के आत्मा को पावन बनाकर उन्हें मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ने को उत्प्रेरित करती है।
वाशी में प्रवास के दूसरे दिन महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भारतीय विद्या भवन स्थित प्रवास स्थल से कुछ दूरी पर महाराष्ट्र भवन प्लॉट के परिसर में बने भव्य मर्यादा समवसरण में पधारे और वहां उपस्थित जनता को अपने श्रीमुख से अमृतमयी वाणी का रसपान कराते हुए कहा कि पुरुष अनेक चित्तों वाला होता है। शास्त्रों में चित्त का अर्थ कहीं चेतना तो कहीं मन के संदर्भ में भी होता है। सचित्त-अचित्त की बात जहां होती है, वहा चित्त का अर्थ चेतना के अर्थ में और चित्त के विचलन की बात हो तो वहां चित्त का अर्थ मन के संदर्भ में होता है। इस प्रकार चित्त का प्रयोग अनेक अर्थों में देखा जा सकता है। जैन आगमों में आठ प्रकार की आत्माओं का वर्णन किया गया है। इसमें एक द्रव्य आत्मा और शेष भाव आत्माएं होती हैं। द्रव्य आत्मा भाव आत्मा के बिना नहीं रह सकती। यहां तक कि मोक्ष की स्थिति में भी द्रव्य आत्मा के साथ भाव आत्मा जुड़ी हुई होती है।
इस भाव जगत में मनुष्य अपने चित्त (भाव) वाला होता है। एक ही आदमी के भीतर अनेक प्रकार के भाव देखे जा सकते हैं। कभी वह भक्ति की भावना से सराबोर होता है तो कभी क्रोध की अग्नि में तपा हुआ नजर आता है, कभी वह बहुत दयालु तो कभी बहुत निर्दयी रूप में भी दिखाई दे सकता है। कभी आदमी बहुत सरल तो कभी उसकी बातें बड़ी जटिलता से युक्त होती हैं। अध्यात्म की साधना में आदमी के इन्हीं भावों को विशुद्ध बनाने की साधना की जाती है। संघबद्ध साधना और एकाकी साधना की बात भी प्राप्त होती है। पूर्व के समय में एकाकी साधना संभव थी। वर्तमान समय में तो संघबद्ध साधना ही होती है। संघ से साधना में सहयोग भी प्राप्त हो सकता है। कभी सारणा-वारणा तो कभी प्रतिकूलता जैसी स्थिति भी प्राप्त हो सकती है। आदमी को संघ में रहते हुए भी एकाकी और अनासक्त रहने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री ने आगे कहा कि परम पूज्य आचार्यश्री भिक्षु, चतुर्थ आचार्यश्री श्रीमज्जयाचार्यजी व नवमे आचार्यश्री तुलसी के साहित्यों देखा जा सकता है। उनमें कितनी-कितनी तत्त्वज्ञान की बातें प्राप्त हो सकती हैं। इन पुस्तकों को पढ़ने से कितनी तत्त्वज्ञान की बातें प्राप्त हो सकती हैं। आचार्यश्री ने प्रवचन के दौरान प्रसंगवश ‘हमारे भाग्य बड़े बलवान’ गीत का आंशिक संगान किया।
आचार्यश्री के स्वागत में तेरापंथी सभा के मंत्री श्री अर्जुन सोनी, तेरापंथी सभा के मुख्य ट्रस्टी श्री अमृतलाल खांटेड़, मुम्बई प्रवास व्यवस्था समिति के महामंत्री श्री सुरेन्द्र कोठारी, तेरापंथ युवक परिषद-वाशी के मंत्री श्री अरविंद खांटेड़, अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के सहमंत्री प्रथम श्री भूपेश कोठारी, श्रीमती निर्मला चण्डालिया व उपासक श्री महावीर चोरड़िया ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी।
ऐरोली के विधायक श्री गणेश नाईक ने आचार्यश्री के दर्शन कर पावन आशीर्वाद प्राप्त करने के उपरान्त अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी।