- पर्युषण महापर्व के पांचवें दिन अणुव्रत चेतना दिवस पर आचार्यश्री ने दी प्रेरणा
- परम धर्म है सेवा : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण
- साध्वीप्रमुखाजी व साध्वीवर्याजी का संबोधन, मुख्यमुनिश्री ने किया गीत का संगान
मुम्बई (महाराष्ट्र) : घोड़बंदर रोड, अष्टदिवसीय पर्युषण महापर्व के दौरान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान देदीप्यमान महासूर्य, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अणुव्रत अनुशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में नन्दनवन परिसर में धर्म, अध्यात्म, ज्ञान, तप, जप रूपी पंचामृत प्रवाहित हो रहा है। इस पंचामृत का पान कर श्रद्धालु अपने जीवन को धन्य बना रहे हैं। पर्युषण महापर्व का पांचवां दिन अणुव्रत चेतना दिवस के रूप में समायोजित हुआ। तीर्थंकर समवसरण में तीर्थंकर समवसरण में तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी की पावन सन्निधि में आयोजित होने वाले मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में मुनि नम्रकुमारजी ने भगवान मल्लिनाथ के जीवन को वर्णित किया। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने जनता को संयम धर्म के विषय विषय में प्रेरणा प्रदान की। मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने ‘संयम का हो जागरण’ गीत का संगान किया। साध्वी वैराग्यप्रभाजी, सावी समग्रप्रभाजी आदि साध्वियों ने अणुव्रत चेतना दिवस के संदर्भ में गीत का संगान किया। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी ने अणुव्रत चेतना दिवस पर उपस्थित जनता को संबोधित किया।
अणुव्रत अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित जनता को पावन पाथेय प्रदान करते हुए पर्युषण पर्वाराधना के संदर्भ में भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा को आगे बढ़ाते कहा कि नयसार की आत्मा अपने तीसरे भव में भगवान ऋषभ के पुत्र भरत के बेटे के रूप में मरीचिकुमार बनी तो भगवान ऋषभ की प्रेरणा से उसने साधु जीवन स्वीकार कर लिया। कुछ समय बाद वह अलग ढंग से साधना करने लगा। साधु का जीवन प्राप्त होना तो मानों कृत-कृत्य हो जाता है, किन्तु अलग साधक के रूप में साधना करने वाले मरीचिकुमार को जब अपने चक्रवर्ती, वासुदेव और तीर्थंकर बनने की सूचना प्राप्त हुई तो उसके मन में अहंकार आ गया। साधक मरीचि एक बार बीमार होता है तो उसकी सेवा करने वाला कोई नहीं था, क्योंकि वह अकेले साधना कर रहा था। संघ होता है तो एक-दूसरे की आवश्यकतानुसार सेवा-सहयोग हो सकता है। सेवा को तो परम धर्म कहा गया है। प्राप्त इस मानव शरीर से किसी की पवित्र सेवा हो तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। हमारे यहां तो सेवा की बहुत अच्छी व्यवस्था है। किसी दूसरे सिंघाड़े के साधु को सेवा की अपेक्षा है तो अन्य सिंघाड़े का साधु सेवा दे सकता है। कभी किसी विशेष स्थिति में साधु साध्वी की और साध्वी साधु को सेवा दे सकती है। साधु-साध्वियों में परस्पर सेवा-सहयोग की भावना और चिन्तन और प्रगाढ़ हो, यह काम्य है।
आचार्यश्री ने आगे कहा कि मरीचि अपना आयुष्य पूर्ण कर पांचवें देवलोक में उप्पन्न होता है। इस प्रकार आचार्यश्री ने अन्य अनेक भवों को बताते हुए कहा कि नयसार की अपने 17वें भव में पोतनपुर के राजा प्रजापति की रानी मृगावती के गर्भ से त्रिपृष्ठ के रूप में पैदा हुआ। राजा की अन्य रानी अचल के गर्भ से अचल नाम की संतान भी थी। राजा के दोनों बेटे शिक्षा आदि ग्रहण कर राजा के सहयोग के लिए अच्छे ढंग से तैयार हो गए। उस समय एक बलशाली राजा अश्वग्रीव तो तीन खण्डों का अधिपति था और वह युद्ध का भी शौकीन था। एकबार उसने ज्योतिषियों से अपने भविष्य के बारे में चर्चा की। आचार्यश्री ने अणुव्रत चेतना दिवस के संदर्भ में लोगों को प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि श्रावक अपने जीवन में एक अवस्था के बाद बारहव्रती बनने का प्रयास करे और उससे भी आगे सुमंगल साधना की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करे। परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन के द्वारा आमजन को इससे जोड़ा, ताकि सभी अपने जीवन का कल्याण कर सकें। आदमी अपने जीवन में ईमानदारी का पालन करने का प्रयास करना चाहिए। मानव अपने जीवन को सच्चाई से भावित बनाए। कम से कम एक अवस्था के बाद तो झूठ का सर्वथा त्याग कर देने का प्रयास करना चाहिए। घर हो या बाहर, व्यापार, धंधा या अथवा किसी भी कार्य में ईमानदारी हो। जीवन में नैतिक मूल्यों का विकास हो तो स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकता है। अणुव्रत के छोटे-छोटे संकल्पों से भी मानव जीवन का कल्याण हो सकता है।
सच्चाई, नैतिकता व ईमानदारी से स्वस्थ समाज का निर्माण संभव : मानवता के मसीहा महाश्रमण
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