- आचार्यश्री ने अवग्रह के भेदों को किया उद्भाषित
- पूज्य कालूगणी की अन्त्येष्ठी प्रसंग के साथ कालूयशोविलास व्याख्यानमाला संपन्न
- अणुव्रत अनुशास्ता की सन्निधि में पहुंचे प्रशासनिक अधिकारी, प्राप्त हुई मंगल प्रेरणा
09.09.2023, शनिवार, घोड़बंदर रोड, मुम्बई (महाराष्ट्र)। मानवता के मसीहा, जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में क्या आम और क्या खास सभी तरह के श्रद्धालुओं को नियमित रूप से जमघट-सा लगा रहता है, किन्तु शनिवार को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम द्वारा आयोजित चतुर्थ प्रशासनिक अधिकारी सम्मेलन में देश भर से लगभग काफी संख्या में प्रशासनिक अधिकारी उपस्थित हुए। उन्हें आचार्यश्री की मंगलवाणी से भगवती सूत्र के श्रवण, कालूयशोविलास का आख्यान के लाभ के साथ-साथ आचार्यश्री द्वारा विशेष प्रेरणा भी प्राप्त हुई। उपस्थित कुछ अधिकारियों ने अपनी भावनाओं को भी अभिव्यक्ति दी।
शनिवार को तीर्थंकर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं के साथ देश के विभिन्न क्षेत्रों से प्रशासनिक अधिकारी भी उपस्थित थे। कई वर्तमान समय में भी सेवा देने वाले तो कई सेवानिवृत्त भी शामिल थे। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्याजी ने उपस्थित जनता व प्रशासनिक अधिकारियों को उद्बोधित किया।
युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि भगवान महावीर ने पांच प्रकार के अवग्रह बताएं हैं- देवेन्द्र अवग्रह, राज अवग्रह, गृहपति अवग्रह, सागरिक अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह। प्रथम देवलोक के इन्द्र के पास व्यवस्था और राज्य आदि की सीमा का भार होता है तो वह देवेन्द्र अवग्रह हो गया। इसके अनुसार भरत क्षेत्र के दक्षिण का हिस्सा उनका होता है। जिस राज्य का जो राजा होता है, उसका अवग्रह होता है, उसके बाद जो घर का स्वामी होता है, उसके हिस्से का जो भूभाग होता है, वह उसका अवग्रह होता है। इसी प्रकार सागारिक और साधार्मिक अवग्रह भी होता है। साधु का जीवन तो अपरिग्रही होता है। साधु के स्वामित्व में न तो एक इंच जमीन न एक भी रुपया होता है। इसलिए साधु अकिंचन होता है, किन्तु किन्हीं प्रमाणों को मानें तो अकिंचन साधु तीनों लोकों का मालिक होता है। जिसके पास जितना है, वह उतना का ही मालिक हो सकता है, किन्तु अकिंचन साधु तो तीनों लोक का स्वामी होता है।
जिसके पास कोई आगार नहीं होता, वह अनगार साधु होता है। अनगार के सामने दुनिया की सारी डिग्रियां ना-कुछ सी होती हैं। त्याग, संयम और तपोमय जीवन साधु का होना चाहिए। तदुपरान्त आचार्यश्री ने कालूयशोविलास के आख्यान को आगे बढ़ाते हुए कहा कि जब पूज्य कालूगणी के महाप्रयाण की जानकारी मां छोंगाजी को हुईं तो एकबार वे विचलित-सी हो गईं, किन्तु बाद में उन्होंने मन को मजबूत कर लिया। पूज्य कालूगणी की अन्त्येष्ठी वैभव पूर्ण वैभव के साथ रंगलाल हिरणजी के खेत में हुई। जिसमें लगभग तीस हजार लोग शामिल हुए। भाद्रपद शुक्ला नवमी को आचार्यपद पर आचार्यश्री तुलसी पट्टासीन हुए। इस प्रकार आचार्यश्री ने कालूयशोविलास के आख्यान की सम्पन्नता की घोषणा की।
आचार्यश्री ने समुपस्थित प्रशासनिक अधिकारियों को पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि इस बार के अधिवेशन का विषय ‘जैनिज्म वे ऑफ लाईफ’ का है। दुनिया में दो ही तत्त्व जीव और अजीव। मनुष्य जीवन भी आत्मा और शरीर का समिश्रण है। आचार्यश्री ने श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों आदि का उदाहरण देते हुए अधिकारियों को अपने जीवन में ईमानदारी, अहिंसा, संयम व नशामुक्त जीवन जीने को अभिप्रेरित किया। आचार्यश्री ने अधिकारियों को कुछ क्षण प्रेक्षाध्यान का प्रयोग भी कराया। इस अधिवेशन के संदर्भ में संयोजक श्री अशोक कुमार कोठारी, श्री पराग जैन व टीपीएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री पंकज ओस्तवाल ने अपनी अभिव्यक्ति दी।