-श्रावक के तीन मनोरथों को आचार्यश्री ने किया वर्णित
-तेरापंथ समाज की अच्छी संपदा है जैन विश्व भारती : आचार्यश्री महाश्रमण
मंगलवार,05.09.2023, घोड़बंदर रोड, मुम्बई (महाराष्ट्र) : तत्त्वज्ञान से भरा से हुआ भगवती सूत्र बहुत बृहद् आगम है। इसके स्वाध्याय से ज्ञान के खजाने को भरा जा सकता है और वैराग्य भाव को भी पुष्ट किया जा सकता है। भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि सबसे सर्वोच्च कोटि के देव जो अनुत्तरोपातिक देव होते हैं, उन्हें अनुत्तर क्यों कहा गया? भगवान महावीर ने उत्तर प्रदान करते हुए कहा कि उनमें अनुत्तर रूप, रस, गंध व स्पर्श होते हैं। पुनः प्रश्न किया गया कि यदि इन देवों ने इतने अच्छे कर्म किए तो सीधे मोक्ष को क्यों नहीं प्राप्त किया? और कितने कर्म निर्जरा शेष रह गई? भगवान ने उत्तर देते हुए कहा कि दो दिन के तप के बराबर जितने ही कर्म शेष रह गए थे, जब उनके आयुष्य पूर्ण हो गए। ऐसी स्थिति और अवस्था में वे अनुत्तरोपातिक देव के रूप में पैदा हो गए। उक्त प्रेरक ज्ञान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगलवार को तीर्थंकर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रदान कीं। आचार्यश्री ने इस प्रसंग के माध्यम से प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि तपस्या, साधना और संवर साधु का तो धन होता है। इसके सामने गृहस्थों के करोड़ों के हीरे भी ना कुछ के समान होते हैं। साधना और महाव्रतों की तुलना में इनका कोई मूल्य नहीं होता। वे सौभाग्यशाली होते हैं, जिन्हें साधुपना प्राप्त हो जाता है। साधुपना प्राप्त होने के बाद उसे पूर्ण जागरूकता के पालन करने वाला धन्य-धन्य हो जाता है। गृहस्थ अपने जीवन में साधु न भी बनें तो अपने जीवन में धर्म की शक्ति का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी का चिंतन शुभ और अपना समय शुभ कार्य में नियोजित करके अपने जीवन को धर्म से भावित बनाने का प्रयास करे। समयानुसार परिग्रह का त्याग अथवा अल्पीकरण करने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने श्रावक के तीन मनोरथों का वर्णन करते हुए कहा कि श्रावक के तीन मनोरथ परिग्रह का अल्पीकरण, जीवन में कभी साधुपन आए और अंतिम मनोरथ की जीवन का अंतिम समय संथारा-संलेखना में जाए। ऐसी भावना रखने वाला व्यक्ति भी अपनी आत्मा को धर्म में नियोजित कर सकता है।
आचार्यश्री ने कालूयशोविलास के माध्यम से पूज्य कालूगणी द्वारा संवत्सरी का उपवास करने और पारणा करने तथा उनके श्वास के उठाव के प्रसंगों को वर्णित किया। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में जैन विश्व भारती का वार्षिक अधिवेशन भी आयोजित हुआ। इस संदर्भ में जैन विश्व भारती के अध्यक्ष श्री अमरचंद लूंकड़, मंत्री श्री सलिल लोढ़ व जैन विश्व भारती के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि कीर्तिकुमारजी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने आशीष प्रदान करते हुए कहा कि तेरापंथ समाज को जैन विश्व भारती के रूप में एक अच्छी संपदा प्राप्त है। आचार्यश्री तुलसी के समय प्रारम्भ हुई यह संस्था बहुत महत्त्वपूर्ण है। आचार्यश्री तुलसी ने लगातार दो-दो चतुर्मास यहां किए। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का भी कितना-कितना प्रवास यहां हुआ है। कितनी-कितनी गतिविधियां यहां संचालित हैं। यह संस्था खूब धार्मिक-आध्यात्मिक विकास करती रहे।
आचार्यश्री के संसारपक्षीय अग्रज श्री सूरजकरण दूगड़ के सुपुत्र स्व. नरेश दूगड़ के देहावसान के संदर्भ में उनके परिजन पूज्य सन्निधि में उपस्थित थे। इस संदर्भ में श्री श्रीचंद दूगड़, श्री महेन्द्र दूगड़, श्री ललित दूगड़, श्री तेजकरण दूगड़, श्री कमल दूगड़, श्री धर्मचन्द गुलगुलिया, श्री लखपत गुलगुलिया, श्री विजय बोथरा, चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के अध्यक्ष श्री मदनलाल तातेड़, जैन विश्व भारती के मंत्री श्री सलिल लोढ़, मुम्बई सभा के पूर्व अध्यक्ष श्री भंवरलाल कर्णावट, श्री सुमतिचंद गोठी, मरुधर मित्र परिषद के अध्यक्ष श्री अशोक सिंघी, श्री विमल दूगड़ व उनके पिता श्री सूरजकरण दूगड़ ने अपनी अभिव्यक्ति दी। उनकी संसारपक्षीया बहन साध्वी चारित्रयशाजी व साध्वी सुमतिप्रभाजी ने भी श्रद्धांजलि के स्वर समर्पित किए। साध्वीप्रमुखाजी, साध्वीवर्याजी व मुख्यमुनिश्री ने भी परिवार को आध्यात्मिक सम्बल प्रदान किया। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि सृष्टि की कुछ नियम और व्यवस्थाएं हैं। इसमें एक आयुष्य की व्यवस्था भी है। जन्म के साथ ही मृत्यु भी आ जाती है, किन्तु वह अपने समय पर आने पर ही प्रकट होती है। दूगड़ परिवार का युवा सदस्य चला गया। ऐसी स्थिति में समता-शांति रखने का प्रयास करना चाहिए। मनोबल रखने का प्रयास हो। नरेश की आत्मा के प्रति आध्यात्मिक मंगलकामना।