- भगवती सूत्र के माध्यम से आचार्यश्री ने प्रवृत्ति तीन साधनों का किया वर्णन
- जीवन में सच बोलने और आचरण में उतारने को आचार्यश्री ने किया अभिप्रेरित
- सघन साधना शिविर 15-23 अक्टूबर को होगा आयोजित, मुख्यमुनिश्री ने की घोषणा
27.08.2023, रविवार, घोड़बंदर रोड, मुम्बई (महाराष्ट्र)। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, सिद्ध साधक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने रविवार को तीर्थंकर समवसरण में समुपस्थित जनता को भवगती सूत्र आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के जीवन में प्रवृत्ति के तीन साधन बताए गए हैं- शरीर, वाणी और मन। शरीर के माध्यम से आदमी कोई गतिविधि करता है, कहीं जाना हो, कुछ लाना, कुछ खाना हो, पढ़ना हो, घूमना हो, यह सब कार्य शरीर के माध्यम से प्राणी करता है। वाणी है तो आदमी किसी से बात कर सकता है। कुछ बोलकर पढ़ सकता है, कुछ सुना भी सकता है, खा सकता है। मन से आदमी चिंतन, मनन करता है, किसी चीज पर विचार कर सकता है। आदमी मन से अनेकानेक गतिविधियां कर सकता है।
आत्मा स्थाई और शरीर अस्थाई होता है। आत्मा इस जीवन से पहले भी थी और बाद में भी रहेगी। शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति के द्वारा समस्त कार्य संपादित होते हैं। गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से प्रश्न किया कि भाषा आत्मा है या आत्मा से अलग है? भगवान महावीर ने बताया कि आत्मा अलग है और भाषा अलग है। भाषा पुद्गल है। पुनः प्रश्न किया कि भाषा रूपी या अरूपी? भगवान महावीर ने बताया कि भाषा रूपी होती है। कोई आवश्यक नहीं होता कि जो चीजें आंखों से दिखाई दे वहीं मूर्त होता है। कई मूर्त चीजों को जानने के लिए और भी इन्द्रियों का प्रयोग होता है। हवा की पहचान स्पर्शनेन्द्रिय से होती है। इसी प्रकार भाषा को श्रोत्रेन्द्रिय से जाना जा सकता है। इस प्रकार भाषा रूपी है। गौतम स्वामी ने पुनः प्रतिप्रश्न किया कि भाषा जीव है या अजीव? भगवान महावीर ने समाधान प्रदान करते हुए कहा कि भाषा जीव में ही होती है, अजीव में नहीं।
आचार्यश्री ने भाषा के चार प्रकारों का वर्णन करते हुए कहा कि जीवन व्यवहार के लिए आवश्यक अंग है भाषा। कोई पूछे बोलना महत्त्वपूर्ण है या नहीं नहीं बोलना? तो इस संदर्भ में मेरा मानना है कि न बोलना महत्त्वपूर्ण है और न नहीं बोलना महत्त्वपूर्ण है, बोलने और नहीं बोलने का विवेक होना महत्त्वपूर्ण बात होती है। कहां बोलना आवश्यक है और कहां नहीं बोलना आवश्यक है, इस बात का विवेक हो जाए तो सबसे बड़ी बात होती है। अपने बल, श्रद्धा, विश्वास, काल और क्षेत्र को देखते हुए बोलने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को सच बोलने का प्रयास करना चाहिए। असत् भाषा के प्रयोग से बचने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’ को परिभाषित करते हुए कहा कि सत्य की सर्वदा विजय होती है। सत्य परेशान हो सकता है, किन्तु पराजित नहीं होता। झूठ बोलने से आदमी तनाव में आ सकता है, किन्तु सत्य बोलने वाला तनावमुक्त रह सकता है। यदि सत्य बोलने की क्षमता न हो तो आदमी को मौन हो जाना चाहिए। आदमी को अपने जीवन में नैतिकता और प्रमाणिकता को बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए तथा सदैव सच्चाई के पथ पर चलने का प्रयास करना चाहिए। झूठ, कपट, छल से बचने का प्रयास हो। धर्म केवल धर्म स्थानों में नहीं कर्मस्थानों में भी होना चाहिए।
आचार्यश्री के पावन पाथेय से पूर्व साध्वीवर्याजी और साध्वीप्रमुखाजी ने भी उपस्थित जनता को उद्बोधित किया। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त मुख्यमुनि महावीरकुमारजी ने अपनी अभिव्यक्ति देते हुए आचार्यश्री महाश्रमण दीक्षा कल्याण महोत्सव वर्ष के संदर्भ में नन्दनवन परिसर में 15 अक्टूबर से 23 अक्टूबर तक ‘सघन-साधना शिविर’ का प्रारम्भ करने की घोषणा करते हुए कहा कि गुरुदेव ने इस वर्ष में सभी को अधिक से अधिक मुमुक्षुओं को तैयार करने की प्रेरणा दी है। इस शिविर के माध्यम से संभागियों साधुचर्या को निकटता से जानने का अवसर प्राप्त होगा। कार्यक्रम के अंत में प्रसिद्ध डॉक्टर धीरज मरोठी ने अपनी अभिव्यक्ति दी।