- आठ कर्म प्रवृत्तियों को आचार्यश्री ने भगवती सूत्र के माध्यम से किया व्याख्यायित
- आचार्यश्री कालूगणी के उदयपुर चतुर्मास प्रवेश का आचार्यश्री ने किया वर्णन
24.07.2023, सोमवार, मीरा रोड (ईस्ट), मुम्बई (महाराष्ट्र)। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान देदीप्यमान महासूर्य, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी के श्रीमुख से निरंतर ज्ञानगंगा प्रवाहित हो रही है। यह ज्ञानगंगा अरब सागर के तट पर स्थित पश्चिमी देशों के लिए भारत का द्वार कहे जाने वाले मुम्बईवासियों के नवजीवन का मानों पथप्रदर्शक बन रही है। भौतिकता की चकाचौंध में आकंठ तक डुबी मुम्बई में नित्य प्रति आध्यात्मिक ज्ञानगंगा का प्रवाह मानों जन-जन को भवसागर से पार उतारने वाली है। आगमाधारित प्रवचन श्रवण करने के लिए मुम्बई की जनता बरसात, मुम्बई की जाम सड़कों और भागमभाग में फंसे जीवन से शांति और आध्यात्मिकता की प्राप्ति के लिए नित्य प्रति पहुंच रही है। वहीं देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों से चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में रहकर सेवा देने वाले सैंकड़ों-सैंकड़ों श्रद्धालु भी इससे लाभान्वित हो रहे हैं।
सोमवार को नन्दनवन परिसर में बने तीर्थंकर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालु जनता को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र के आधार पर पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि जैन दर्शन में कर्मवाद को प्रधानता प्राप्त है। कर्मवाद का सिद्धांत व्यापक है। भगवती सूत्र में भी कर्म की बात बताई गई है। कर्म वह सूक्ष्म पुद्गल होते हैं जो जीव की प्रवृत्तियों के आधार पर आत्मा से लगे रहते हैं। वे मानों स्वचालित रूप से अपने कार्य को पूर्ण करते रहते हैं। जिस प्रकार आदमी खाना खा लेता है तो शरीर के भीतर स्थित तंत्र स्वचालित रूप में उसका विपाक कर उससे रक्त, मज्जा, मांस, शक्ति, मल, मूत्र आदि अलग-अलग करता रहता है, उसी प्रकार जीव द्वारा किए गए किसी भी कार्य के बाद उसके फल को कब, कैसे और कहां देने की प्रक्रिया कर्म पुद्गलों के द्वारा स्वतः होती रहती है। कर्मों का उदय, उसके अच्छे-बुरे फल अपने आप प्राप्त होता है। जीव को तो मात्र उन कर्मों को भोगना होता है।
भगवती सूत्र में आठ कर्म प्रवृत्तियां बताई गई हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय। इन आठ कर्मों में चार घाती कर्म और चार अघाती कर्म हैं। चार अघाती कर्म आत्मा को ज्यादा नुक्सान पहुंचाने वाले नहीं होते हैं। चार घाती कर्म आत्मा का नुक्सान पहुंचाने वाले और कर्मों का बंध कराने वाले होते हैं। अघाती कर्म भौतिकता से संदर्भित और घाती कर्म आत्मा से संदर्भित होते हैं। वेदनीय कर्म अघाती कर्म है। यह भौतिक रूप में परिणाम देने वाला होता है। यह या तो शरीर को खूब सुख प्रदान करेगा अथवा बहुत ज्यादा दुःख देगा। ये दोनों कार्य आत्मा से संबंधित नहीं है, इसलिए ये कर्म आत्मा का कुछ भी नुक्सान नहीं कर सकते। नाम कर्म से किसी को खूब नाम, ख्याति प्राप्त हो सकती है, किन्तु इससे आत्मा का कुछ भी बुरा नहीं होता।
चार घाती कर्म आत्मा को नुक्सान पहुंचाते और आत्मा को पाप कर्म का बंध भी कराने वाले होते हैं। आदमी को कर्मवाद को जानकर चार घाती कर्मों से बचने का प्रयास करना चाहिए और अपनी आत्मा को निर्मल बनाने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री कालूगणी के जीवनवृत्त ‘कालूयशोविलास’ की आख्यानमाला को आगे बढ़ाते हुए आचार्यश्री कालूगणी के उदयपुर चातुर्मासिक प्रवेश के प्रसंगों का वर्णन किया। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में अनेक तपस्वियों ने अपनी-अपनी धारणा के अनुसार तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया।