- भगवती सूत्र में वर्णित पांच प्रकार के ज्ञान का आचार्यश्री ने किया वर्णन
- कालूयशोविलास के आख्यान का क्रम भी बढ़ा आगे
- उपासक श्रेणी में ज्ञान और संस्कारों का हो निरंतर विकास : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण
14.07.2023, शुक्रवार, मीरा रोड (ईस्ट), मुम्बई (महाराष्ट्र)। भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई वर्तमान में आध्यात्मिक राजधानी बनी हुई है। मुम्बई भ्रमण को तथा व्यापार-धंधा, नौकरी आदि के लिए लोग देश-विदेश से यहां आते रहते हैं, किन्तु वर्तमान में देश-विदेश से श्रद्धालु जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, मानवता के मसीहा, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी की पावन सन्निधि को प्राप्त करने के लिए मुम्बई महानगर में पहुंच रहे हैं। पांच महीने का चतुर्मासकाल मुम्बई महानगर के मीरा-भायंदर महानगरपालिका के क्षेत्र में स्थित नन्दनवन में विराजमान आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में पूरे दिन श्रद्धालुओं का तांता-सा लगा रहता है। भले ही यहां पूरे दिन हो रही बरसात लोगों को परेशान करती हो, किन्तु राष्ट्रसंत आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि और आशीर्वाद और प्रवचन से प्राप्त आध्यात्मिक वर्षा लोगों को आंतरिक शांति प्रदान कर रही है।
अमृतवाणी का श्रवण करने पहुंचे श्रद्धालुओं को शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते हुए कहा कि भगवती सूत्र में बताया गया है कि आत्मा में अवबोध-बोध होता है। वह आत्मा चाहे सिद्ध हो अथवा संसारी सभी में बोध होता है। ऐसा कोई प्राणी नहीं, जिसमें बोध की चेतना न हो। हर एक छदमस्थ अथवा सिद्ध आत्मा में बोध की चेतना होती है। जीव की परिभाषा भी की गई है कि जिसमें उपयोग चेतना का व्यापार होता है, वह जीव होता है। इसलिए हर आत्मा में उपयोग की चेतना होती है।
भगवती सूत्र में ज्ञान के पांच प्रकार और अज्ञान के दो प्रकारों का वर्णन भी किया गया है। ज्ञान के पांच प्रकार आधि निबोधिक, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान और केवल ज्ञान। इसी प्रकार दो प्रकार के अज्ञान भी बताया गया है- ज्ञान का अभाव अज्ञान और मिथ्यादृष्टि का बोध रूपी अज्ञान। यह ज्ञान और अज्ञान के संदर्भ की चर्चा करते हुए बताया गया है कि ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान रूपी पट्ट पर पड़े मिट्टी के आवरण के समान है। जैसे-जैसे यह मिट्टी हटती जाती है और पूर्ण रूप से मिट्टी हट जाने पर केवल ज्ञान प्रकाशित हो जाता है। एक बार केवल ज्ञान हो जाए तो उस पर दुबारा ज्ञानावरणीय कर्म की मिट्टी आ ही नहीं सकती, किन्तु केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए वीतरागता की परम आवश्यकता होती है। वीतरागता की प्राप्ति के बाद ही केवल ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। अज्ञान और मोह का क्षय होने पर ही सर्वज्ञान अर्थात केवल ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।
आचार्यश्री ने मुख्य प्रवचन प्रवचन कार्यक्रम के उपरान्त तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालूगणी के जीवन वृत्तांत ‘कालूयशोविलास’ के आख्यान क्रम को आगे बढ़ाते हुए उनके जोधपुर चतुर्मासकाल का वर्णन करते हुए उस दौरान होने वाली दीक्षा में बाल दीक्षा के विरोध के प्रकरण को वर्णित करते हुए इस संदर्भ में आचार्यश्री कालूगणी के मत को भी प्रतिपादित किया।
इसके उपरान्त आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के तत्त्वावधान में आयोजित उपासक श्रेणी के सप्तदिवसीय शिविर का आज मंचीय कार्यक्रम रहा। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने उपासक श्रेणी के शिविरार्थियों को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि इस श्रेणी का शुभारम्भ परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी के समय में हुआ। धीरे-धीरे इस श्रेणी का अच्छा विकास हो गया है। इस श्रेणी को परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का आशीर्वाद प्राप्त है। यह श्रेणी तेरापंथ और जैन धर्म से बहुत गहराई से जुड़ी हुई है। जिन क्षेत्रों में साधु-साध्वियों का पहुंचना नहीं हो पाता, यह श्रेणी सार-संभाल को जाती है। इस श्रेणी में ज्ञान, संस्कार का विकास हो और साथ ही खान-पान की शुद्धि बनी रहे। उपासक श्रेणी के संयोजक श्री सूर्यप्रकाश श्यामसुखा, श्री सुमेरमल सुराणा, श्री तरुण गुन्देचा व श्रीमती ऋतु आहूजा ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री के दर्शनार्थ पहुंचे जीतो के चीफ सेक्रेट्री श्री रोशनलाल बड़ाला ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी और आचार्यश्री से पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।