- शोषित महिलाएं कर पाएंगी खुद की और जनता की आवाज़ बुलंद
महिलाओं के सम्मान में हर जगह ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसे नारे भले ही चुनावी रैलियों में गूंजते सुनाई देते हैं, लेकिन महिलाओं को राजनीति में अब भी उनका हक नहीं मिला है। सभी राजनीतिक दल महिला वोटर्स को लुभाने की अलग-अलग तरह से कोशिश करते हैं, लेकिन उम्मीदवार के तौर पर महिलाओं पर भरोसा नहीं जताते। हर चुनाव से पहले महिला संगठनों की तरफ से महिलाओं को उनकी आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व देने की मांग उठती है, लेकिन वह बस एक खबर बन कर रह जाती है। लेकिन राजनीतिक दल में टिकट देने की बात आती है तो पार्टियां भरोसा नहीं कर पाती हैं। हर क्षेत्र में महिला अधिकारों की बात बहुत सीमित दायरे में होती है। एक तरफ तो भ्रष्ट राजनीति की स्वीकार्यता है, तो दूसरी तरफ इसके खिलाफ संघर्ष का ढोंग भी है।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक खत्म हो गए हैं। सभी राजनीतिक पार्टियों अपना-अपना दम दिखाया और जनता को लुभाने की कोशिश की। आए दिन नई-नई घोषणाएं की गईं। इसी क्रम में कांग्रेस ने भी खुद को मजबूत बनाने और सत्ता में लाने की तैयारी शुरू कर दी थी। 40 फीसद सीटों पर महिला उम्मीदवार उतारने की घोषणा करके प्रियंका गांधी ने एक बड़ा दांव चल दिया था। ऐसे दौर में, जब विधानसभा और लोकसभा में महिलाओं की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है, तब इस घोषणा का महिला मतदाताओं पर प्रभाव पड़ा। दिक्कत यह है कि समाज की पुरुष प्रधान सोच अब भी महिलाओं को पीछे धकेलने से बाज नहीं आती। इसीलिए पुरुष राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का विरोध करते रहते हैं। अब जरूरत है थोड़े बदलाव की, ताकि महिलाएं भी राजनीति में स्वतंत्र रूप से काम करके देश के सुखद बदलाव में अपनी प्रभावी भूमिका निभा सकें।
प्रियंका गांधी ने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ नारा देकर अच्छी पहल की है। इसमें वे महिलाएं हैं, जो पहले से ही कहीं न कहीं शोषित हैं। अब सवाल यह उठता है कि इन 40 प्रतिशत महिलाओं में अगर दो भी जीत कर आती हैं, तो वे खुद की और जनता की आवाज कितनी बुंलद करती हैं। ज्यादातर देखा गया है कि विधानसभा या लोकसभा में जो महिलाएं कुर्सी पर बैठती हैं, वहां अक्सर मौन हो जाती हैं। इसका जीता जागता उदाहरण तो फूलन देवी भी थीं, जिन्होंने अत्याचार के खिलाफ बंदूक तो उठाई और बाद में लोकसभा का चुनाव जीत कर जैसे ही कुर्सी पर पहुंचीं, तो खुलकर नहीं बोल पाईं। यही स्थिति हेमा मालिनी और किरण खैर की भी हैं, जो संसद में अक्सर मौन ही रहती हैं। भले ही ये लोग शोषित वर्ग से नहीं हैं, लेकिन महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। आज भी यह देश पुरुष प्रधान माना जाता है। चाहे वह कोई भी वर्ग हो, हर जगह पुरुष ही हावी रहते हैं। अक्सर समाज में देखने को मिलता है कि शोषित महिलाओं को समझने की बजाय उन पर और लांछन लगा दिए जाते हैं। अब देखना यह होगा कि यह सताई हुई ये महिलाएं अगर जीतती हैं, तो विधानसभा में कितनी मुखर हो पाती हैं।