लेखिका तेरापंथ धर्म संघ की अष्टम् असाधारण साध्वी प्रमुखा हैं जो गत पचास वर्षों से नारी चेतना को जागृत करने, स्वस्थ परिवार स्वस्थ समाज के निर्माण का अद्भुत कार्य कर रही हैं। उनके प्रेरणादायक आलेखों से जीवन को सही दिशा मिलती है। जीवन को देखने का अलग दृष्टिकोण मिलता है। ऐसी महान साध्वी प्रमुखा कनक प्रभा जी के मनोनयन दिवस पर अभिवंदना।
मनुष्य विकसित चेतना वाला प्राणी है। वह मानवीय मूल्यों को समझता है और उनके प्रति सतर्क रहता है। मानवीय मूल्यों के प्रति अनास्था अपने आप में एक समस्या है। अनैतिकता-प्रधान युग में मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठा देना कठिन हो सकता है, असंभव नहीं। जो व्यक्ति कोलाहल के बीच रहकर उसके शब्दों को अर्थहीन बना देता है उस पर कोई कोलाहल हावी नहीं हो सकता। नैतिक लोगों के बीच रहकर जो अनीति के प्रभाव को निस्तेज कर दे, वही उस व्यक्ति के चिंतन और कार्य की सार्थकता है। जो क्षण व्यक्ति की चेतना को तोड़ते और बिखेरते हों, उन क्षणों में अनाहत रहने वाला व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को निखार सकता है। जो व्यक्ति जीवंत व्यक्तित्व से जुड़ा हुआ है वह कभी टूटता नहीं, किंतु उसे तोड़ने के निमित्त बनने वाली परिस्थितियां स्वयं टूट जाती हैं। आज मानवीय चेतना के साथ खिलवाड़ करने वाली परिस्थितियां हैं- जातिवाद, अस्पृश्यता, सांप्रदायिकता, महंगाई, गरीबी, भिखमंगी, विलासिता, अमीरी, अनुशासनहीनता, पदलिप्सा, महत्वाकांक्षा, उत्पीड़न और चरित्रहीनता।
उक्त समस्याएं किसी युग में अलग-अलग समय में प्रभावशाली रहीं होंगी, इस युग में इनका आक्रमण समग्रता से हो रहा है। आक्रमण जब समग्रता से होता है तो उसका समाधान भी समग्रता से ही खोजना पड़ता है। हिंसक परिस्थितियां जिस समय प्रबल हों, अहिंसा का मूल्य स्वयं बढ़ जाता है। किसी भी युग में हो रहे नैतिक पतन को रोककर मानवीय चेतना के ऊर्जारोहण के लिए अमानवतावादी दृष्टिकोण का निरसन आवश्यक होता है। सामाजिक मूल्य-परिवर्तन और मानदंडों की प्रस्थापना से लोकचेतना में परिष्कार हो सकता है।
अप्रामाणिकता, संग्रह, शोषण और क्रूरता आदि के दंश मानवता को मूर्च्छित कर रहे हैं। इस मूर्छा को तोड़ने के लिए अहिंसा और अपरिग्रह का मूल्य बढ़ाना होगा तथा विसर्जन की पृष्ठभूमि पर स्वस्थ समाज-संरचना की परिकल्पना को आकार देना होगा।
मनुष्य किसी भी क्रिया में प्रवृत्त हो, उससे पहले एक बार मुड़कर देख ले, अपनी शक्ति को पहचान ले तो उसका परिणाम सम्यक् हो सकता। कार्य प्रारंभ करने के बाद उसमें उत्पन्न होने वाली अनास्था मूल पर कुठाराघात है। आस्था और अनास्था के बीच झूलता हुआ प्राणी मानवीय कुंठाओं से ग्रस्त हो जाता है। वह सामाजिक वर्जनाओं की विवशता में जीता और अपने आपको निरीह अनुभव करता है।
आज अनुभव किया जा रहा है कि देश विकृतियों की शूली पर चढ़ा है। विदेश में विकृतियां नहीं है, ऐसा मैं नहीं मानती। पर चारों ओर विकृतियां ही विकृतियां हैं, यह मिथ्या धारणा अपने आप में एक विकृति है। कहा जाता है कि एक बार बगदाद में एक संक्रामक बीमारी फैली। शेख को बताया गया कि बीमारी का कारण चूहे हैं। शेख के दिमाग में संदेह खड़ा हो गया। वह जहां भी चूहों को देखता, मरवाने का आदेश दे देता। एक बार उसे संशय हो गया कि उसके मकान में चूहे हैं। उसने मकान जलाने की आज्ञा दे दी। परिवार में कुहराम मच गया। उसी समय वहां एक मसखरा पहुंचा। उसने कहा बगदाद के बिलों में जितने चूहे नहीं है, उससे अधिक चूहे आपके सिर में हैं। बस, फिर क्या था, शेख अपना सिर पीटने लगा। उसे अपने सिर में चलते और चीखते हुए चूहों का आभास हुआ। वास्तविक चूहों ने उसको जितना परेशान नहीं किया, अपने दिमाग में कल्पित चूहों से वह अधिक संत्रस्त हो गया।
विकृतियों की बीमारी है, उसे नकारा नहीं जा सकता। किंतु कल्पित संदेह से मनुष्य जितना टूट रहा है, वास्तविकता उसे उतना नहीं तोड़ती। अब अपेक्षा है संदेह की स्थिति को समाप्त कर यथार्थ की अनुभूति करना तथा नैतिक और आध्यात्मिक आस्थाओं की निर्मिति के लिए जागरूक रहना। नैतिक मूल्यों के आधार पर ही मनुष्य उच्चता का अनुभव कर सकता है और मानवीय प्रकाश पा सकता है। मानवता का प्रकाश सार्वकालिक, सार्वदेशिक, और सार्वजनिक है। इस प्रकाश का जितनी व्यापकता से विस्तार होगा, मानव समाज का उतना ही भला होगा। इसके लिए तात्कालिक और बहुकालिक योजनाओं का निर्माण कर उनकी क्रियान्विति से प्रतिबद्ध रहना जरूरी है।
साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा के अमृत महोत्सव पर अभिवंदना स्वरूप अखिल भारतीय तेरापंथ महिला मंडल द्वारा प्रदत आलेख, जो जीवन को सही दिशा देता है।