आचार्य श्री महाश्रमण जी श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादश आचार्य है। आपका जन्म सरदार शहर के दुग्गड़ परिवार में हुआ।माता-पिता का नाम नेमादेवी एवं झुमरमल जी था। बाल्य काल मे ही आपके पिताश्री का देहावसान हो गया था, घर की जिम्मेदारी आपके संसार पक्षीय ज्येष्ठ भ्राता सुजानमल जी पर आ गई। सुजानमल जी बड़ी कुशलता से परिवार का पालन-पोषण करते।
आपकी मातुश्री गांव में बिराजित चारित्र आत्माओं की निरन्तर सेवा-दर्शन प्रवचन का लाभ लेती। कई बार सामयिक का लाभ लेती। कई बार मातु श्री व्याख्यान में जाती तब पुत्र मोहन को भी अपने साथ ले जाती और उसे सन्तो की सेवा में बैठाकर स्वयं प्रवचन सामयिक का लाभ लेती। सन्तो के सत्प्रयास से मोहन में सत संस्कारों का जागरण हो गया औऱ दीक्षा की भावना जग गई। मोहन ने नंगे पैर सन्तो की गोचरी की सेवा प्रारम्भ कर दी औऱ सीखना अतार्थ साधु बनने से पूर्व के अध्ययन का क्रम बनाया, इस प्रकार अपना समय सामयिक स्वाध्याय सेवा में समर्पित कर दिया।
ज्यों-ज्यों साधना का क्रम बढ़ता गया आपका वैराग्य बढ़ता गया औऱ एक दिन अपनी इच्छित मंजिल गुरुदेव श्री तुलसी की कृपा से सरदारशहर में विराजित मुनि श्री सुमेरमल जी “लाडनूं” के कर कमलों द्वारा प्राप्त कर ली।
दीक्षा के पश्चात आपने गुरुदेव के दर्शन श्री डूंगरगढ़ में किये औऱ औऱ गुरुदेव ने परम प्रसन्नता प्रकट करते हुए आपका नाम मुदित औऱ आपके साथ दीक्षित मुनि का नाम उदित रखा। पूरे धर्म संघ में उदित-मुदित के प्रति सहज श्रद्धा बढ़ गई।
आपका प्रारंभिक अध्ययन मुनि श्री सुमेरमल जी स्वामी, मुनि श्री सोहन लाल जी स्वामी चाड़वास के पास सुचारू रूप से चलता रहा। सूत्रों को छाया सहित कंठस्त करके अपनी कुसाग्र प्रज्ञा का परिचय हम सबके लिए प्रेरणा पाथेय बन गया।
आपकी निर्मलता, निश्छलता ने गुरुदेव श्री तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के दिल-दिमाग मे एक विशेष स्थान बना लिया। उसी का सुपरिणाम कहा जा सकता है कि गुरुदेव ने आपको “साझपति” ही नही “महाश्रमण” पद पर प्रतिष्ठित किया। लघुवय में स्वतंत्र यात्राएं करवाई। आपकी यात्राएं हर दृष्टि से प्रभावी रही। प्रवचन एंव क्षेत्रों की सार संभाल के लिए महत्वपूर्ण रही।
धीरे-धीरे गुरुदेव ने अपने यशस्वी उतराधिकारी के निजी कार्य मे आपकी नियुक्ति की औऱ जब गुरुदेव श्री तुलसी का महाप्रयाण हो गया तब आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने गंगाशहर में एक विशेष समारोह करके अपने सक्षम उत्तराधिकारी की घोषणा की जिसे देखने जैन-अजैन लोगों का बड़ा काफिला उपस्थित हुआ। आपके चयन से सम्पूर्ण तेरापंथ संघ निशिचन्त्तता की अनुभूति करने लगा। आपके सुश्रम औऱ सहिष्णुता को देखकर आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने “महातपस्वी” अलंकरण प्रदान किया।
जब सरदार शहर में तेरापन्थ धर्मसंघ को दशमेश आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का अकस्मात स्वर्गवास हो गया तब संघ ने एकादशवें आचार्य की घोषणा की औऱ आपका विधिवत सरदार शहर के गांधी विद्या मंदिर के प्रांगण में वैशाख शुक्ला दशमी के दिन पदाभिषेक उत्सव हुआ। जिसका कुशल संयोजन आदरणीया महाश्रमणीजी ने किया जो जन-जन के विशेष आकर्षण का केंद्र बना। आचार्य श्री महाश्रमण जी का जन्म, दीक्षा, औऱ पदाभिषेक वैसाख शुक्ला में ही है, ऐसा योग मुश्किल ही नही महामुश्किल है। आचार्य श्री महाश्रमण जी के जन्म दिवस पर यह मंगलकामना करता हूँ कि आप निरामय औऱ दीर्घायु हों जिसमें हम सब को आपसे सतत मार्गदर्शन औऱ प्रेरणा पाथेय प्राप्त होता रहे और हम भी साधना करते हुए यत्किंचित धर्म संघ की सेवा कर सकें।
श्री चरणों मे श्रद्धापूर्वक ! नमन, नमन, नमन !
संसार की गिनीचुनी हस्तियों में एक नाम है आचार्य श्री महाश्रमण जी ! -मुनि कमल कुमार
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