
उम्मीदें ही तो हैं जो व्यक्ति को गतिशील बनाए रखती हैं। उम्मीदें ही तो हैं 125 करोड़ लोगों की जिसकी आंच पर राजनीति पार्टियां अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में लगी हुई हैं। राजा भरत की उम्मीदें ही थी भगवान राम 14 वर्षों का वनवास पूर्ण कर अयोध्या जरूर लौटेंगे। भगवान राम का वनवास तो 14 वर्षों का था जो खत्म भी हुआ। पर कब गऱीबी का वनवास खत्म होगा, कब भूख की चपेट में आने वाले मासूम बच्चों के मौतों का वनवास खत्म होगा? कभी इनके उम्मीदों का दिया जलेगा भी? आखिर कब तक उम्मीदों के ये दिए नीलाम होते रहेंगे? कभी इनके घर भी भगवान राम वनवास खत्म कर लौटेंगे? कभी इनके घर भी दीवाली के दिये जलेंगे? देश में हर साल कुपोषण की वजह से पांच साल से कम उम्र के करीब 5 लाख बच्चे सही पोषक आहार न मिलने की वजह से काल के गाल में समा जाते हैं। बात करें दक्षिण एशिया की तो भारत का कुपोषण के मामले सबसे बुरी हालत है। भारत में अनुसूचित जनजाति (28%), अनुसूचित जाति (21%), पिछड़ी जाति (20%) और ग्रामीण समुदाय (21%) पर अत्यधिक कुपोषण का बहुत बड़ा बोझ है। ऐसा नही है कि इस समस्या का समाधान नही हैं। देश में अनाज की बहुत कमी हो, भारत ऐसा देश है जिसके पास मौजूद अनाज की बोरियों को एक के ऊपर एक रख दी जाय तो चांद तक पैदल सफ़र किया जा सकता है। पर उपयुक्त नीतियों के अभाव में यह जरूरत मंदों तक नहीं पहुंच पाता है। अनाज भण्डारण के अभाव में सड़ता है। चूहों द्वारा नष्ट होता है या समुद्रों में डुबाया जाता है पर जनसंख्या का बड़ा भाग भूखे पेट सोता है। 500 लाख से ज्यादा ऐसे परिवार हैंं जो अति गरीबी की श्रेणी में आते हैं। इसका मतलब यह है कि आधी आबादी को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती है।
ऐसा नहीं कि सरकारें इस गंभीर समस्याओं को लेकर कुछ कर नही रही हैं। पर सरकारी योजनाएं आम जनमानस तक पहुंच नहीं रही हैं। यही वजह है कि कुपोषण खत्म होने का उम्मीद का दिया जल ही नहीं पा रहा है। कुछ ऐसा ही हाल हमारे अन्नदाता का भी है। हर साल हजारों किसान कर्ज के बोझ के तले दब कर मौत को गले लगा लेते हैं। हजारों लाखों करोड़ का कर्ज उद्योगपतियों के उनके घर दिवाली के दिए जले इसलिए माफ़ कर दिए जाते हैं। पर पिछले 75 वर्षों में किसानों के नाम पर सिर्फ आरोप प्रत्यारोप ही राजनितिक पार्टिया करती आई हैं। जब सत्ता में हैं तब विपक्षी पार्टी होने के नाते आरोप लगाओ और जब जीत जाओ तो आरोपों के जवाब दो। यही होता आया है। जमीन से जुड़ा हमारा किसान कर्ज के बोझ के नीचे दफन होता जा रहा हैं..। खेती से लोगों का मोह भंग होता जा रहा है। जबकि हमारे देश की अर्थव्यवस्था में गावों की बड़ी भागीदारी है। अच्छी फसलें होती हैं तो बाजार को गांवों से उम्मीद होती है। पर गांवो में रहने वाले निराश किसान के घर दिवाली के दीप इस साल जलेंगे या फिर उसके घर का चिराग ही हमेशा के लिए बुझ जाएगा, इसका डर हमेशा बना रहता है। किसान अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रहा है। यही वजह है कि पिछले एक साल में जितने किसान आन्दोलन हुए हैं, इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसानों की क्या दशा है। पर समस्या यह है कि किसानों की सुनता कौन है। राहुल गांधी कहते हैं कि हमने 75 हजार करोड़ का कर्ज एक साथ माफ़ किया था, मौजूदा सरकार अमीरों की सरकार है। पर सवाल ये है की अखिरकार किसान फिर भी असहाय क्यों है, इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? क्या ये समस्या चार सालों की है ? वहीं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि 2022 तक किसानों की आय दुगनी कर देंगे। सवाल यह है की क्या 2022 तक किसान रहेगा भी कोई? यह सबसे बड़ा सवाल है। क्योंकि जिस तरह से खेती में लागत बढ़ता जा रहा है और कमाई घटती जा रही है। ऐसे में किसान की अगली पीढ़ी शहरों का रुख नहीं करेगी क्या ? अगर सच में किसानों ने हल चलाना बंद कर दिया तो पेट की आग नोटों से बुझेगी क्या? समस्याएं गंभीर हैं, इन्हे राजनीतिक चश्मों की जगह इंसानियत और आवश्यकता के चश्मे से देखने की बहुत जरूरत है। समस्या बताई जाती है कि किसानों का हक़ बिचौलिए खा रहे हैं, पर क्या इसका हल इतना मुश्किल है कि निकाला नहीं जा सकता है ? देश में आनाज की उत्पादन क्षमता बढ़ी है, पर किसान मर रहा है। अनाज है पर पेट नहीं भर रहा है। कुपोषण के शिकार इस 21वीं सदी में भी मासूम हो रहे हैं। हम चांद पर लोगों को भेजने की तैयारी कर रहे हैं, पर हमारे ही आस-पास मौजूद बच्चों तक अनाज भेज नहीं पा रहे हैं। आखिरकार कब इनकी दिवाली भी दीपो की श्रृंखलाओं से जगमगाएंगी!