सासु माँ की याददाश्त खत्म (अल्जाइमर्स रोग) होने पर ससुराल के घर से अपने घर में लाकर सालों अपने साथ रखा। पति की मदद से उनकी सेवा सुश्रुषा भी की, पर अंतिम दर्शन… …अवश सी बैठी थी, दिलो-दिमाग में जंग छिड़ी थी। वर्षों बीत गए, पर वह घटनाक्रम उसके मानस पटल पर यूँ छपा है, जैसे कल की ही बात हो। सामाजिक विद्रूपता का एक ऐसा रूप देखा कि दुनियावी रिश्तों पर से विश्वास हिल गया था था उसका।
उस दिन पति और ससुर, दोनों अपने-अपने विभागीय दौरे पर थे। अस्पताल से खबर आई कि वहाँ भर्ती ददिया सास नहीं रहीं। वह अपने सरकारी आवास से अपनी दो साल की बेटी तथा ड्राइवर के साथ अस्पताल गई और उनके पार्थिव शरीर को जीप से लेकर ससुराल पहुँच गई। कदम गेट के अंदर रखने चाहे तो कमर पर हाथ धरे खड़ी सासु माँ ने वहीं रोक दिया।
उनके उद्गार थे, “बुढ़िया के लहास हम भीतरे न घुसे देबुअ, एकरा लेके सीधे गाँव चल जा। हियाँ न रखऽ, हमरा पूरा घर धोए पड़ते।” (बुढ़िया की लाश को मैं भीतर नहीं आने दूँगी, इनको लेकर सीधे गाँव चली जाओ, यहाँ मत रखो, वरना मुझे पूरा घर धोना पड़ेगा।)
“माँ जी! गाँव तेइस किलोमीटर दूर है, साथ में आपकी छोटी सी पोती है। इसे रास्ते भर कैसे संभालूँगी? बाबूजी या बिटिया के पापा के आने का इंतजार करती हूँ, वे जैसा कहेंगे, वैसा हम करेंगे? टेलीफ़ोन कर दिया है, जल्द आते ही होंगे।”
“चुप्पेचाप इनका लेके गाँव चल जा। तिन्नो चचिया सास लोग दाह-संस्कार के इंतज़ाम करतथुन, तबले बाबूजी पहुँच जत्थुन। हियाँ से हम कौनो बिधि न होए देबुअ।” (चुपचाप इनको लेकर गाँव चली जाओ। तीनों चाची सास लोग इनके दाह-संस्कार का इंतज़ाम करेंगीं, तब तक तुम्हारे ससुर जी पहुँच जाएँगे। यहाँ से कोई भी अंतिम क्रिया की विधि नहीं होने दूँगी।)
हार कर उसने सासु माँ से पोती को रखने का अनुरोध किया, पर अपने अड़ियल रवैये के कारण वह सहमत नहीं दिखीं। क्या करती, देवर को साथ लिया और गाँव की ओर चल दी।
ददिया सास के पार्थिव शरीर को जीप से उतरवाकर जैसे ही गाँव के घर के प्रांगण में रखा, तीनों चचिया सासों का बड़बड़ाना शुरू हो गया। उनपर काम का बोझ जो बढ़़ाया था उसने, अतः चार बातें सुननी ही थीं। धमकाने के अंदाज़ में कहा गया, “घर की बड़ी बहू होने के नाते पार्थिव शरीर को नहलाना, उस पर लेप लगाना, इन विधियों की ज़िम्मेदारी तुम्हारी सास की थी। वे नहीं आईं, उनके स्थान पर सारी विधियाँ तुम ही करो।” चचिया सासों की बातें उसके पल्ले नहीं पड़ी, पर कहा मानने के सिवा कोई चारा न था। मना करती तो सुनने को मिलता कि उच्च शिक्षित बहुएँ बड़ी टेढ़ी होती हैं। उसकी मोटी-मोटी आँखों में बेबसी के आँसू छलक आए। नज़रें अभी भी रास्ते पर लगी थीं, “काश बाबूजी और पति दोनों में से कोई भी आता हुआ नजर आ जाता।”
इसे संयोग कहें या ईश्वर की रजा, ननद रानी अपनी दादी की खबर सुनकर गाँव आ पहुँची, उसे देख घबराहट से अवरुद्ध हो चुकी साँसें पुनः चलने लगीं। बिटिया को ननद के हवाले किया। तदोपरांत सारी विधियाँ पूरी करने में जुट गई।
विधियाँ पूरी हो चुकी थीं, शव यात्रा कुछ ही पलों में निकलने वाली थी, तभी बड़ी चचिया सास प्रकट हुईं! “आखिर क्यूँ?”, प्रश्न आकार लेने लगे। उनके हाथ में एक कसैली काटने वाला सरौता था। ददिया सास के पास बैठीं, उनके कानों में धारण किए गए छः कनौसी (सोने का कुंडल, जो एक से अधिक छेद करके कानों में पहना जाता है) को काट कर निकाल लिया। जो भी हुआ, उसने पहली बार देखा था, वह सिहर उठी।
“हे भगवान! यह कैसी परंपरा है? पार्थिव शरीर से छुआछूत मानता और अपने आप को बचाता हुआ इंसान, उसी शरीर पर धारण किए गए कीमती आभूषणों के लिए कितना लोभी हो जाता है। कीमती वस्तुओं में उसे किसी तरह की छूत या अशुद्धि नजर नहीं आती!” इस सामाजिक विद्रूपता से वह पहली बार दो-चार हुई थी।
उसका मन हुआ, एक लंबा-चौड़ा भाषण देकर उनके मानस को झकझोर दे। पर जानती थी, यहाँ किसी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। उल्टा सुनना पड़ता कि तुम्हारी ददिया सास बड़ी दबंग महिला थीं। उन्होंने अपनी बहुओं जिंदगी तबाह कर रखी थी। उनका तो यही हश्र होना था। चुप रहना ही उसे श्रेयस्कर लगा। उसके पति और ससुर एक-एक करके आ पहुँचे, उसे वहाँ की जिम्मेदारियों से फारिग करके घर रवाना कर दिया। बिटिया के साथ सदमे जैसी हालत में अपने सरकारी आवास पर लौट आई। शारीरिक और मानसिक थकान से चूर, नहा-धोकर बिस्तर पर धड़ाम से गिरी, पर नींद आँखों से कोसों दूर थी…
पर यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी। अगले दिन कुछ पुनः अविश्वसनीय घटा, जिसकी खबर उसे गाँव से टेलीफोन द्वारा किसी ने दी…
उसकी सास को जब कनौसियों (सोने के ६ कुंडल) की खबर लगी तो वह गाँव जा धमकीं। अपनी देवरानियों से कहा, “मेरी बहू ने कहा है कि सारी पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ उसके ससुर को उठानी पड़ती है, इस तरह कनौसियाँ मेरी होनी चाहिए।” उच्चाधिकारी की पत्नी तथा उच्चाधिकारी की माँ होने की धौंस देवरानियों पर सदा से जताती आई थीं। चार भाइयों के कहने को संयुक्त पर बिखरे हुए परिवार में बड़ा दबदबा था उनका। देवरानियाँ ना नुकुर करती रह गईं, पर बहू के नाम का सहारा लेकर सारी कनौसियाँ छीन ही लाईं।
यह तो सिर्फ एक दिन का किस्सा था, सालों-साल अनगिनत ऐसी विद्रूपताओं को झेलते-झेलते उसके आहत मन ने स्वयं से एक वादा किया कि वह अपनी जिम्मेदारियाँ तो निभाएगी, पर सासु माँ के अंतिम दर्शन नहीं करेगी…।
ध्यान बाहर की ओर गया, पुकारे जाने की आवाजें आनी बंद हो गई थीं… उसकी मनोदशा से सारा परिवार वाक़िफ़ था।
कहानीः अंतिम दर्शन
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