आदित्य तिक्कू।।
देश के पूर्व राष्ट्रपति और आजाद भारत के प्रमुख नेताओं में से एक प्रणब मुखर्जी का निधन हो गया है। वह 84 वर्ष के थे। वह भारतीय राजनीति के उन चंद नेताओं में से हैं, जिनका सम्मान सभी दलों के सदस्य एक समान करते हैं। देश की राजनीति में उनके योगदान को देखते हुए एनडीए सरकार ने पिछले साल उन्हें भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया था।
प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर 1935 को पश्चिम बंगाल के वीरभूमि जिले के मिराती नामक गांव में कामदा किंकर मुखर्जी और श्रीमति राजलक्ष्मी मुखर्जी के घर में हुआ। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद प्रणब मुखर्जी कलकत्ते में ही पोस्ट एंड टेलीग्राफ विभाग में अपर डिविजन क्लर्क थे। प्रणब दा ने 1963 में पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले में स्थित विद्यानगर कॉलेज में कुछ समय के लिए राजनीति शास्त्र भी पढ़ाया। उन्होंने कुछ समय के लिए ‘देशेर डाक’ नामक समाचार पत्र में पत्रकार की भूमिका भी निभाई। प्रणब मुखर्जी का राजनीति में आगाज़ 1969 में मिदनापुर उपचुनाव में एक निर्दलीय उम्मीदावर के तौर पर खड़े वीके कृष्ण मेनन के लिए चुनाव प्रचार किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उस उपचुनाव में प्रणब मुखर्जी के चुनावी रणनीतिक कौशल से बहुत ज्यादा प्रभावित हुईं और उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का सदस्य बना दिया। इसी साल जुलाई में प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस ने राज्यसभा भेज दिया। और इस तरह प्रणब मुखर्जी का राजनीति में औपचारिक रूप से प्रवेश हुआ।
साल 1985 और अगस्त 2000 से जून 2010 तक प्रणब मुखर्जी पश्चिम बंगाल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। उन्होंने जून 1991 से 1996 तक तब के ‘योजना आयोग’ जो अब ‘नीति आयोग’ के नाम से जाना जाता है के डेप्युटी चेयरमैन रहे। वह 1993 में चौथी बार राज्यसभा के सदस्य बने। फरवरी 1995 से से मई 1996 तक वह भारत के विदेशी मंत्री रहे। साल 1996 से 2004 तक वह राज्यसभा में कांग्रेस के मुख्य सचेतक रहे। साल 1999 में वह पांचवीं बार राज्यसभा के लिए चुने गए। प्रणब दा साल 2004 में पहली बार पश्चिम बंगाल के जंगीपुर संसदीय सीट से चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंचे और जून 2012 तक सदन के नेता रहे। वह 23 मई 2004 से 24 अक्टूबर 2006 तक भारत के रक्षा मंत्री रहे।
चार दशक लंबे राजनीतिक कार्यकाल के बाद वर्ष 2012 में प्रणब मुखर्जी देश के प्रथम नागरिक यानी राष्ट्रपति बने थे। मुखर्जी 2012 से लेकर 2017 तक देश के 13वें राष्ट्रपति रहे। अपने राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान उन्होंने कई अहम फैसले भी लिए । इस पद तक उनका पहुंचना आसान नहीं था। दरअसल राष्ट्रपति पद के लिए यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी की पसंद हामिद अंसारी थे। लेकिन समाजवादी पार्टी सहित कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की पसंद प्रणब दादा थे। इससे यह भी पता चला था कि राजनीतिक विभेद के बावजूद प्रणब दा की स्वीकार्यता सभी राजनीतिक दलों में थी। प्रणब मुखर्जी राजनीतिक सफर बहुत भव्य रहा जो राष्ट्रपति भवन पहुंचकर संपन्न हुआ। सत्ता के शीर्ष पर यानी प्रधानमंत्री पद तक पहुंच सकते थे, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। हालांकि उन्होंने खुलकर इस बारे में अपनी इच्छा व्यक्त कर दी थी। अपनी किताब ”द कोअलिशन इयर्स” में।
नंबर दो का दर्जा होने के बाद भी एक कदम से प्रधानमंत्री नहीं बन सके: 1969 में इंदिरा गाँधी के आग्रह पर प्रणब मुखर्जी पहली बार राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंचे थे। इंदिरा गांधी राजनीतिक मुद्दों पर प्रणब की समझ की कायल थीं। यही वजह थी कि उन्होंने प्रणब मुखर्जी को कैबिनेट में नंबर दो का दर्जा दिया। यह इसलिए भी खास हो जाता है क्योंकि इसी कैबिनेट में आर. वेंकटरामन, पीवी नरसिम्हाराव, ज्ञानी जैल सिंह, प्रकाश चंद्र सेठी और नारायण दत्त तिवारी जैसे कद्दावर नेता थे।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अगले प्रधानमंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी का नाम भी चर्चा में था, लेकिन पार्टी ने अनुभवहीन राजीव गांधी को चुना। दिसंबर 1984 में लोकसभा चुनाव हुए। कांग्रेस ने 414 सीटें जीतीं। कैबिनेट में प्रणब मुखर्जी को जगह नहीं मिली। बाद में उन्होंने लिखा- जब मुझे पता लगा कि मैं कैबिनेट का हिस्सा नहीं हूं तो दंग रह गया। लेकिन, फिर भी मैंने खुद को संभाला। पत्नी के साथ टीवी पर शपथ ग्रहण समारोह देखा। दो साल बाद यानी 1986 में प्रणब मुखर्जी ने बंगाल में राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस (आरएससी) का गठन किया। तीन साल बाद राजीव से उनका समझौता हुआ और आरएससी का कांग्रेस में विलय हो गया।
सात साल बाद दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने का मौका फिर निकल गया: 1991 में राजीव गांधी की हत्या हुई। चुनाव के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। माना जा रहा था कि इस बार प्रणब मुखर्जी के मुकाबले कोई दूसरा चेहरा प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं है, लेकिन इस बार भी मौका हाथ से निकल गया। नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाया गया। प्रणब मुखर्जी को पहले योजना आयोग का उपाध्यक्ष और फिर 1995 में विदेश मंत्री बनाया गया।
2004 में सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी की जगह मौन प्रधानमंत्री चुना: साल 2004 आया। कांग्रेस को 145 और भाजपा को 138 सीटें मिलीं, लेकिन इसे भाजपा की ही हार माना गया। सरकार बनाने के लिए कांग्रेस क्षेत्रीय दलों पर निर्भर थी। सोनिया गांधी स्वयं प्रधानमंत्री बनना चाहते हुए भी नहीं बन सकती थी, अन्यथा सालो से बंद जवाब बाहर आ जाते। इसलिए प्रणब मुखर्जी का नाम फिर चर्चा में था, लेकिन सोनिया ने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना कर्मठ व्यक्ति थे व समर्पित मौन भी। मनमोहन ने 2017 में कहा था, “जब मैं प्रधानमंत्री बना, तब प्रणब मुखर्जी इस पद के लिए ज्यादा काबिल थे, लेकिन मैं कर ही क्या सकता था? कांग्रेस प्रेसिडेंट सोनिया गांधी ने मुझे चुना था। मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। प्रणब को प्रधानमंत्री नहीं बनाने का शिकवा करने का पूरा हक है।’’ यह बात मनमोहन ने प्रणब मुखर्जी की ऑटोबायोग्राफी के विमोचन के मौके पर कही थी। समारोह में सोनिया और राहुल गांधी भी थे। मनमोहन की बात सुनकर माता -पुत्र मुस्करा दिए थे।
उनके राजनीतिक सफर को थोड़ा सा भी ध्यान से पढ़े तो समझ आता है की कई बार प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये कांग्रेस के संकटमोचक प्रणब मुखर्जी कभी इंदिरा गाँधी के अनुभवहीन बेटे राजीव गांधी से चूके तो कभी मौन व्यक्तित्व से पर भारत की जनता के दिलो को उन्होंने जीता।
बहुत सुंदर लेख है।