आदित्य तिक्कू।।
कांग्रेस पार्टी के भीतर सुधारों की आवश्यकता पर अनौपचारिक विचार-विमर्श संसद सदस्य शशि थरूर द्वारा आयोजित डिनर के दौरान कम से कम पांच महीने पहले शुरू हुआ था। वह एक बार फिर सोनिया गांधी को ही पार्टी की अंतरिम अध्यक्षता बनी रहने के अनुरोध पर खत्म हुआ। यह महानता की परिकाष्ठा है कि तक़रीबन 20 वर्षो से एक महिला नहीं चाहती थी कि वह अध्यक्ष बने परन्तु वह अभी भी भारत की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी की अध्यक्षता का भार अपने कंधे पर उठा ररहीं है, धन्य है।
कांग्रेस कार्यसमिति ने एक साल पहले भी यही तय किया था। यह केवल ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ वाली कहावत को चरितार्थ करना ही नहीं, यथास्थिति कायम रखने के पक्ष में सहमति जताना भी है। इसका यह भी अर्थ है कि राहुल गांधी बिना कोई जिम्मेदारी संभाले पार्टी को पहले की तरह पिछले दरवाजे से संचालित करते रहेंगे। शायद सोनिया गांधी भी यही चाहती हैं। हैरानी की बात है जिनके समक्ष राजनीति के दिगज नहीं टिक पाए, जैसे पी.वी नरसिम्हा राव, सीताराम केसरी सबसे प्रमुख शरद पवार,राजेश पायलट, राजेश शर्मा उनका तो सड़क एक्सीडेंट हुआ था। आज वह इतनी असहाय हो गयी है कि अपने निर्णय पर अडिग नहीं रह पा रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी ओर से अपना पद छोड़ने की पेशकश महज इसलिए की गई हो ताकि कांग्रेसी नेताओं का जो खेमा राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष बनाने के विरोध में है, वह पुरानी व्यवस्था कायम रखने यानी उनके अंतरिम अध्यक्ष बने रहने पर सहमत हो जाए और राहुल गांधी को थोड़ा और मौका मिल जाये पार्टी और राजनीति में स्थापित होने के लिए।
वास्तविकता के धरातल पर देखें तो इससे कांग्रेस की जगहंसाई ही हुई। आखिर इससे हास्यास्पद और क्या हो सकता है कि नेतृत्व के मसले को हल करने के लिए बैठक बुलाई जाए और उसमें उसी नतीजे पर पहुंचा जाए जिस पर एक साल पहले पहुंचा गया था? यदि नेतृत्व के मसले को हल ही नहीं करना था तो फिर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई ही क्यों गई?
भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का गांधी परिवार के बगैर गुजारा नहीं हो सकता, लेकिन आखिर इसका क्या मतलब कि परिवार ही यह तय न कर पाए कि पार्टी की कमान किस सदस्य को सौंपी जाए? क्या इस असमंजस का कारण यह है कि पार्टी नेताओं का एक गुट राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं और दूसरे गुट की इच्छा है कि राष्ट्र राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार कर ले। जो भी हो, यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सोनिया गांधी उस वक्त का इंतजार कर रही हैं, जब पार्टी के सभी प्रमुख नेता एक स्वर से यह मांग करने लगें कि राहुल गांधी के फिर पार्टी अध्यक्ष बने बगैर कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं। मुश्किल यह है कि ऐसा होना आसान नहीं, क्योंकि पार्टी की गुटबाजी सबके सामने आती रहती है।
पार्टी का एक पक्ष जिस तरह यह साबित करने में लगा हुआ है कि पार्टी के बड़े नेता राहुल गांधी की हां में हां मिलाने से इंकार करके भाजपा के मन मुताबिक काम कर रहे हैं, उससे यही पता चलता है कि सोनिया और राहुल समर्थक नेताओं के बीच अविश्वास की खाई और गहरी हो गई है। चूंकि दोनों ओर से तलवारें म्यान से निकल गई हैं। इसलिए आने वाले दिनों में आरोप प्रत्यारोप की बारिश होना स्वभाविक है। बस यही आशा है कि राजनीति का स्तर और नहीं गिराएंगे, सब धैर्य से विवेक से अपनी बात रखेंगे अन्यथा कई बार एक्सीडेंट होने का अंदेशा हो जाता है।